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मूलम्-जे आवि दोसं समुवेइ तिवं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सएण जंतू ,ना द्वात्रिंशकिंचि सई अवरज्झई से ॥ ३८॥ एगंतरत्तो रुइरंसि सद्दे, अतालिसे से कुणई पओसं ।
मध्ययनम्.
गा३८-४३ दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ३९ ॥ सदाणुगासाणुगए
अ जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे।चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिटे॥४०॥ व्याख्या-अत्र 'चराचरे हिंसइत्ति' वाद्योपयोगिस्नायुचर्माद्यर्थ चरान् , वंशमृदङ्गकाष्ठाधर्थमचरांश्च हिनस्ति॥४०॥ मूलम्-सदाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे अ कहिं सुहं से,
संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥ ४१ ॥ सद्दे अतित्ते अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ
तुर्हि । अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ४२ ॥ व्याख्या-'अदत्तं' गीतगायकदास्यादि वीणावंशादिकं वा शोभनशब्दोत्पादकं वस्तु आदत्ते ॥ ४२ ॥ मूलम्-तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे अ। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा,
तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ४३ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पओगकाले अ|