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उत्तराध्ययन ॥५५६॥
दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥४४॥ सदा- द्वात्रिंश
मध्ययनम्. णुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेवि किलेसदुक्खं, निव- (३२) त्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥४५॥ एमेव सदंमि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। गा४४-५० पदुट्ठचित्तो अ चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥४६॥ सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झेवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥४७॥२॥ घाणस्स गंधं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाह । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो अजो तेसु स वीअरागो ॥४८॥ गंधस्स घाणं गहणं वयंति, घाणस्स गंधं गहणं वयंति । तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु ॥ ४९ ॥॥५५६॥ गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं, अकालिअंपावइ से विणासं । रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ॥ ५० ॥
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