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________________ कल्पसूत्र. सुबोधि० ॥२८९॥ तालमूलाकारं अधः पृथु, उपरि च सूक्ष्मं बिलं तालमूलम् (४) संबुक्कावटेत्ति शंबूकावतं भ्रमरगृहं नाम पंचमम् (५) (७)। स्नेहसूक्ष्मे उस्सा अवश्यायो यो गगनात्पतति (१) हिमं स्त्यानो जलबिंदुः (२) कावट्टे नामं पंचमे ५, जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहियत्वे भवइ, सेत्तं लेणसुहुमे (७)। से किं तं सिणेहसुहुमे ? सिणेहसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-उस्सा १, हिमए २, महिआ ३, करए ४, हरतणुए ५, जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहियत्वे भवइ, से तं सिणेहसुहुमे (८)॥४५॥वासावासं पजोसविए भिक्खू इच्छिज्जा गाहा०भ०पा०नि०प०नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता | ॥२८९॥ है महिका धूमरी (३) करका घनोपलाः (१) हरतनुर्भूमिनिःसृततृणाग्रबिंदुरूपो यो यवांकुरादौ दृश्यते । (५) ()॥ ४५ ॥ अथ ऋतुबद्धवर्षाकालयोः सामान्या सामाचारी वर्षासु विशेषेणोच्यते वासावासं
SR No.600342
Book TitleKalpsutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay Gani
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1915
Total Pages622
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size39 MB
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