________________
उत्तराध्ययन ॥३१०॥
द्वात्रिंशमध्ययनम्. (३२) गा८०-८५
व्याख्या-अत्र शुभस्पर्शाणां मृगादिचर्मपुष्पवस्त्रादीनां संग्रहे स्त्रीसेवादौ च प्रवर्त्तमानश्चराचरान् हन्ति ॥ ७९ ॥ मूलम्-फासाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे अ कहं सुहं से,
संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥ ८० ॥ फासे अतित्ते अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ
तुढेि । अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ८१ ॥ व्याख्या-इहादत्तं शुभस्पर्श वस्त्रतूलिकादि ॥ ८१॥ मूलम्-तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे अ । मायामुसं वडइ लोभदोसा,
तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ८२ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पओगकाले अदुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥८३ ॥ फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निबत्तए जस्स कए ण दुक्खं ॥८॥ एमेव फासंमि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्दचित्तो अ चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ८५ ॥ फासे विरत्तो मणुओ
UTR-3