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________________ | उत्तराध्ययन ॥३०५॥ द्वात्रिंशमध्ययनम्. गा५१-५५ व्याख्या-'ओसहि' इत्यादि-औषधयो नागदमन्याद्याखासां गन्धे गृद्धः औषधिगन्धराद्धः सन् 'सप्पे बिलामो विवत्ति' इहेवशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् सर्प इव बिलान्निष्क्रामन् , स अत्यन्तप्रियं तद्न्धमुपेक्षितुमशक्तो बिलान्निष्कामति, ततो गारुडिकादिपरवशो दुःखमनुभवतीति ॥५०॥ मूलम्-जे आवि दोसं समुवेइ तिवं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सएणजंतू, न किंचि गंधं अवरज्झई से ॥ ५१ ॥ एगंतरत्तो. रुइरंसि गंधे, अतालिसे से कुणई पओसं। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेणं मुणी विरागो ॥५२॥ गंधाणुगासाणुगए अ जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे । चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तहगुरू किलिहे।५३॥ व्याख्या-अत्र मूषकमुष्कमृगनाभिप्रभृतिहेतवे पुष्पादिहेतवे च चराचरान् हिनस्तीति ॥ ५३॥ मूलम्-गंधाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे अ कहिं सुहं से, संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥ ५४॥ गंधे अतित्तो अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुर्हि । अतुहिदोसेण दुही परस्त, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ५५॥ व्याख्या-इहादत्तं सुगन्धितैल-कस्तूरिका-कुसुमादि ॥ ५५ ॥ UTR-3
SR No.600340
Book TitleUttaradhyayanam Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraguptasuri
PublisherAnekant Prakashan Jain Religious Trust
Publication Year2010
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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