________________
उत्तराध्ययन ॥३०६॥
द्वात्रिंशमध्ययनम्. (३२) गा ५६.६१
मूलम्-तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, गंधे अतित्तस्स परिग्गहे अ । मायामुसं वडइ लोभदोसा,
तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ५६ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पओगकाले अ दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, गंधे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ५७ ॥ गंधाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ५८ ॥ एमेव गंधम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्दचित्तो अ चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ५९ ॥ गंधे विरत्तो मणुओ* विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झेवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणी
पलासं ॥६०॥३॥ मूलम्-जीहाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो
अजो तेसु स वीअरागो ॥ ६१॥ रसस्स जिभं गहणं वयंति, जिब्भाए रसं गहणं वयंति।
UTR-3