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उत्तराध्ययन ॥३० ॥
द्वात्रिंशमध्ययनम्. गा३८-४३
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मूलम्-जे आवि दोसं समुवेइ तिवं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सएण जंतू, न
किंचि सई अवरज्झई से ॥ ३८ ॥ एगंतरत्तो रुइरंसि सदे, अतालिसे से कुणई पओसं। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ३९ ॥ सदाणुगासाणुगए
अजीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे। चित्तेहिं ते परितावेइ वाले, पीलेइ अत्तट्टगुरू किलिटे॥४०॥ व्याख्या-अत्र 'चराचरे हिंसइत्ति' वाद्योपयोगिनायुचर्माद्यर्थ चरान् , वंशमृदङ्गकाष्ठाधर्थमचरांश्च हिनस्ति॥४०॥ मूलम-सदाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे अ कहिं सुहं से,
संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥४१॥ सद्दे अतित्ते अपरिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ
तुहिँ । अतुहिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ४२ ॥ व्याख्या-'अदत्तं' गीतगायकदास्यादि वीणावंशादिकं वा शोभनशब्दोत्पादकं वस्तु आदत्ते ॥ ४२ ॥ मूलम्-तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे अ । मायामुसं वहइ लोभदोसा,
तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥४३॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पओगकाले अ
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