________________ उत्तराध्ययन द्वितीयमध्ययनम् (2) / / 175 / / पश्यन्ती तत्सुता तत्र, तातं दृष्ट्वेत्यचिन्तयत् // 95 // अहो मया समं माया, मात्राऽपि महती कृता / यमेवास्तु, मम किं लज्जयाऽधुना ? // 96 // किञ्च खतातमप्येन-मपशंकं भजाम्यथ // नर्तनोद्युक्तनतक्या, वदनावरणेन किम् ? // 97 // सा विमृश्येति पित्राऽपि, समं रेमे यथारुचि // रतश्रान्तौ च तौ सुतौ, प्राबुध्येतां | प्रगेऽपि न // 98 // माता तस्यास्ततः कान्त-वियोगोदनदुःखतः // अलब्धनिद्रा यामिन्यां, प्रातस्तावित्यभाषत // 99 // उद्गतेऽपि रवौ विश्वं, विश्वं स्पृशति चाऽऽतपे // प्रबुद्धेऽप्यऽखिले लोके, हले ! जागर्ति नो सुखी // 10 // तत्सवित्रीवचः पूर्व-प्रबुद्धा सा तदङ्गजा॥ श्रुत्वा तदीयभावं चा-ऽवगम्येत्युत्तरं ददौ // 1.1 // मातस्त्वयैव प्रोक्तं मे, यद्यक्षं बहु मानयेः // यक्षेण चाहृतस्तात-स्तदन्यं तातमेषय ! // 102 // इमामाकर्ण्य तद्वाचं, ब्राह्मणीत्यब्रवी| त्पुनः // नव मासान् खीयकुक्षौ, कप्टेनाऽधारि या मया // 103 // विणमूत्रे च चिरं यस्या, मर्दिते साऽपि नन्दना॥ | मत्कान्तमहरत्तन्मे, जातं शरणतो भयम् // 104 // " पूर्ववद्भावनापूर्व-मित्युक्तेपि कथानके // तेनाऽमुक्तः शिशुस्तुर्यमाख्यानमिदमुक्तवान् // 105 // "तथा हि क्वाप्यभूदामे, विप्रः कोऽपि महाधनः // स च धर्मधिया मूढः, सरोवरमचीखनत् // 106 // तस्य पाल्यां देवकुल-मारामं च विधाप्य सः // प्रवर्त्य छागयज्ञं च, मुहुस्तत्र चकार सः // 107 // अयं हि धर्मस्त्राणं मे, परलोके भविष्यति // ध्यायन्निति स यज्ञेषु, छगलानवधीहून् // 108 // भूदेवः सोऽन्यदा मृत्वा, छागेष्वेवोदपद्यत // सोऽपि छागः क्रमादृद्धिं, प्रासोऽभूत्पीनभूघनः // 109 // यज्ञे हन्तुं नीय UTR-1