________________ // 174 / / स्तृतीयमाख्यानं, वक्तुं प्राक्रस्त सोऽर्भकः // “तथा हि क्वाप्यभूद्रामे, द्विजन्मा कोऽपि कामुकः // 81 // तस्य चासीत्सुता मध्य- वयोभूषितभूघना // उदग्ररूपलावण्या, जगन्नेत्रसुधाञ्जनम् // 82 // अन्यदा तां सुतां वीक्ष्य, रिरंसुः स द्विजोऽभवत् // न हि प्रबलभोगेच्छः, स्थानास्थाने विचारयेत् // 83 // तां च कामयमानोऽपि, न सिषेवे स लजया // तत्कामस्यानिवृत्तेश्च, जज्ञे क्षीणतनुभृशम् // 84 // तं चातिदुर्बलं प्रेक्ष्य, सनिर्बन्धं तदङ्गना // अप्राक्षीक्षामताहेतुं, सोऽप्याचख्यौ यथातथम् // 85 // ततः सा व्यमृशद्दक्षा, योनां नाप्नुयादयम् // तदावश्यं विपद्येत, द्राग् दशां दशमीं गतः // 86 // विधायाकार्यमप्येत-तदेनं जीवयाम्यहम् // निजो भर्ता हि पत्नीभि-जीवनीयो यथातथा // 87 // सा विचिन्त्येति तं प्रोचे, मा कारिधृति प्रिय ! // अहं केनाऽप्युपायन, करिष्यामि तवेहितम् // 88 // तमित्याश्वास्य सा पुत्री-मिति प्रोवाच दम्भिनी // पूर्व हि नः सुतां यक्षो, भुङ्क्ते पश्चाद्विवाह्यते // 89 // कृष्णभूतेष्टानिशायां, तत्त्वं यक्षालयं ब्रजेः // त्वां भोक्तुमुद्यतं तत्रा-ऽऽगतं यक्षं च मानयेः ॥९॥हे पुत्रि ! तत्रोद्योतं च, मा कार्यक्षमीक्षितुम् // उद्योते हि कृते यक्षः, सरोषमुपयास्यति // 91 // तच्छ्रुत्वा मातृविस्रम्भा, खीचक्रे साऽपि तद्वचः // विस्रन्धो हि जनोऽकार्य-मपि सद्यः प्रपद्यते ! // 92 // रात्रौ च मातृप्रोक्तायां, सा यक्षेक्षणकौतुकात् // शरावस्थगितं दीपं, लात्वा यक्षालयं ययौ // 93 // तन्मात्रा प्रहितो भट्टो-ऽप्याऽऽगात्तद्यक्षमन्दिरम् // तां चोपभुज्य निःशंकं, रतश्रान्तोऽखपीत्सुखम् // 94 // शरावसम्पुटाहीप- माविष्कृत्याऽथ कौतुकात् // UTR-1