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________________ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रे श्रीनैमिचन्द्रीयवृत्तिः ॥ ५३ ॥ XCXCXCXCXCXCXXCCXXCX भणइ - बहुस्सुयं चित्तकहं, गंगा वहइ पाडलं । वुज्झमाणग! भदं ते, लव ता किंचि सुभासियं ॥ ३ ॥ तेण भन्नइ जेण रोहंति बीयाणि, जेण जीवंति कासगा । तस्स मज्झे विवज्जामि, जायं सरणओ भयं ॥ ४ ॥ तस्स वि तद्देव गिण्हइ ॥ पुणो वि तइओ तेउक्कायदारओ तहेव अक्खाणयं कहेइ — एगस्स तावसस्स अग्गिणा उडवो दड्डो । पच्छा सो भइ—जमहं दिया य राओ य, तप्पेमि महुसप्पिसा । तेण मे उडवो दद्द्डो, जायं सरणओ भयं ॥ ५ ॥ अथवाबग्घस्स मए भीएण, पावओ सरणं कओ । तेण अंगं महं दहुं, जायं सरणओ भयं || ६ || तस्स वि तद्देव गिण्हह || पुणो चउत्थो वाउक्कायदारगो तहेव अक्खाणयं कहेइ – जहा एगो जुवाणो घणमिचियसरीरो, सो पच्छा वाएण गहिओ । अन्त्रेण भन्नइ - लंघणपवणसमत्थो, पुत्रिं होऊण संपयं कीस ? | दंडेलइयग्गहस्थो, वैयंस ! किं णामओ वाही ? ॥ ७ ॥ सो भइ -- जेट्ठासाढेसु मासेसु, जो सुहो बाइ मारुओ । तेण मे भज्जए अंगं, जायं सरणओ भयं ॥ ८ ॥ तस्स वि तद्देष गिण्हs | पुणो वणस्सइकाइओ पंचमो तहेव अक्खाणयं कईइ - जहा एगम्मि रुक्स्बे केसि पि सउणाणमावासो । तहिं च ताणं चेलगाणि जायाणि । पच्छा रुक्खव्भासाओ वल्ली उट्टिया रुक्खं वेढेउं उघरिं चिलग्गा फलसमिद्धा जाया । तदणुसारेण सप्पेण विलग्गिऊण ते चिल्लग्गा खइया । पच्छा सेसगा भणति -- जाव दुत्थं सुहं वुच्छं, पायवे निरुवद्दवे । मूलाओ उट्ठिया वही, जायं सरणओ भयं ||९|| तस्स वि तहेव गिण्हइ ।। पुणो विछट्टो तसकायदारओ तहेव अक्खाणयं कहेइ – जहा एवं नगरं परचक्केण रोहियं । तस्स बाहिरियाए मायंगा भएण अभितरमणुष्पविट्ठा | अब्भितरएहिं नीणिज्जंति बाहिं, परचक्केण घेप्पंति । पच्छा केणइ भन्नइ — अभितरया खुहिया, पेति बाहिरा जणा । दिसं भयह मायंगा !, जायं सरणओ भयं ॥ १०॥ तहा वि न मुंबई एसो । इयरो वि बीयमाणयं १ गच्छतीति गम्यते । २ तदयं ते । द्वितीयं परीषहाध्ययनम् । ॥ ५३ ॥
SR No.600327
Book TitleSukhbodhakhya Vruttiyutani Yttaradhyayanani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmangsuri, Nemichandrasuri
PublisherPushpchandra Kshemchandra
Publication Year1937
Total Pages798
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
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