________________ कोट्याचार्य वृत्ती विशेषाव कः पुनरत्र पुष्कलपरिहार इत्यतोऽधुना भाष्यकारो मूलगाथां विविवरीषुराह-'सोतिंदियोवलद्धी त्यादि // 'सोइंदिओवलद्धी बुद्धीति त्यादि, सुयं सोइंदियोवलद्धी चेव, नउ सा सोतिदिओवलद्धी सुयं चेव, कुतः' इत्याह-पच्छ , स्पष्टार्थमिति गाथार्थः // 122 // | पूर्वगाथा 'तुसमुच्चयेत्यादि भाविताथैवेति न व्याख्याता // 123 // 'पत्तादी'त्यादि पूर्वाध कथितार्थ "भावसुयं तु अक्खराणं सद्दत्यरू॥५६॥ 14 वाणं लाभो, सेसं जं आरओ होइ सद्दरूवरसगंधफासाववोहमेत्तं तं मतिनाणं"ति गाथार्थः॥१२४॥ आह-'जती'त्यादि // जइ सुय-18 56 // मक्खरलाभो सेसिंदियसंबन्धी शब्दार्थरूप इत्यर्थः, तो ण णाम सोतोवलद्धिरेव सुर्य'अस्याप्यधिकृतस्य श्रुतत्वात् , उच्यते, शब्दार्थरू| पाणामक्षराणि 'सोतोवलद्धिरेव' श्रुतिसम्भवादिति गाथार्थः // 125 // किं यावान् शेषेन्द्रियाक्षरलाभः स सर्व श्रुतं 1, नेत्याह 'सोवि ए'त्यादि // असावपि च शेषेन्द्रियाक्षरलाभो यः श्रुताक्षराणां तच्छ्रतं, अश्रुताक्षरलाभस्तु मतिरेव, 'जइव'त्ति अथ चेन्मति| रेकान्ततोऽनक्षरैव ततश्च सा मतिः सर्वा न प्रवर्तेत ईहोपायधारणारूपेण, तस्या अक्षरात्मकत्वात् , यदीयमनक्षरैव स्यादवग्रहमात्रमेव स्यादिति गाथार्थः // 126 // एवं तावदनया गाथया श्रुतस्य मतेर्भेद उक्तोऽधुना श्रुतस्यैव प्रसङ्गतः स्वरूपमभिदधत्पूर्वगतगाथाया | 3. एव सम्बन्धमायामाह दब्बसुयं भावसुयं उभयं वा किं कह व होजत्ति / को वा भावसुयंसो दवाइसुयं परिणमेजा ? // 127 // बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ तं सुयं मईसहियं / इयरत्थवि होज सुयं उवलद्धिसमं जइ भणेजा // 128 // जे सुयबुद्धिहिढे सुयमइसहिओ पभासई भावे / तं उभयसुयं भन्नइ दव्वसुयं जे अणुवउत्तो॥१२९॥ इयरत्थवि भावसुए होज तयं तस्सम जइ भणेजा। न य तरह तत्तिय सो जमणेगगुणं तयं तत्तो // 130 // ACARRANSAR