________________ विशेषाव. कोव्याचार्य प्रवचनादिद्वारचर्चा वृत्ती 1393 // // 393 // अहवासाहिकयच्चिय वक्खाणंगतिजं तोऽणुगमे। जंज वक्खाणंगं तं तं सब्वं जओऽणुगमो॥१३६५। / / सुत्ताणुगमाईए वक्खाणविही जओ तदंग सा / जं च सुयावसरे चिय सकलाई गवाइनायाइं // 1366 // जह साणुगमंगं चिय दारविहीए तओ किमाईए / ओयारेउं भन्नइ ? उक्कमकरणे गुणो को णु // 1367 // दारविहीवि महत्था तत्थवि वक्खाणविहिविवज्जासो। मा होज्ज तदाईए वक्वाणविहिं निरूवेइ // 1368 // एत्थेव गुरू सीसंसीसो य गुरुं परिच्छिउं पच्छा / वोच्छिइ सोच्छिई वसुहं मोच्छिइ व सुदिट्ठपेयालो॥१३६९।। साऽणुगमंगपि इहं जा भन्नइ किन कीरह इहेव / दाएइ पयत्तयरं वक्वाणविही य सुत्तम्मि // 1370 // अणुओगाइविभागे वक्खाणविहीवि तप्पसंगेणं / जपंति केइ तेसिं वोतुं सोउं व को जोगो॥१३७१॥ संगहगाहाए पुण अणुओगाई ति दाएंता। जो वन्मिओऽणुओगो सोऽयं स विही जदत्यंति // 1372 // सुयमिह जिणपवयणं तस्सुप्पत्ती पसंगओऽभिहिया। जिणगणहरवयणाओ इमाइं तस्साभिहाणाई // 1373 // 'जिणे'त्यादि / / तत्र जिनात्प्रवचनोत्पत्तिः तथा तदेकार्थिकानि एकार्थिकविमागश्चैतत्त्रयं प्रसङ्गस्य शेषमास्ते, तथा द्वारविधिश्रोपोद्घातः, अयं च प्रकृतो भविष्यतीत्यभिप्रायः, तथा नयविधिश्चतुर्थ मूलद्वारं प्रकृतं, तथा व्याख्यानविधिश्च शिष्याचार्ययोरधिकृतः, अनुयोगश्च सूत्रस्पर्शसूत्रानुगमलक्षणोऽधिकृतः, इत्ययं तावत्सङ्ग्रहगाथापिण्डार्थः // 1358 // 'पासंगियमित्यादि / 'सिस्से'त्यादि गतार्थम् ॥५९-६०॥एवं तावत्सामान्येनायमर्थः, अथ चोदकः-उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नय इति क्रमापातिनीमेनां गाथामवबुध्यमानो भावार्थ चानवबुध्यमानः क्रमोपन्यासमस्याः प्रविघट्टयन्नाह-'किं पुण'इत्यादि / किं पुनश्चतुर्थ द्वारमभिधाय, कतमद AROLERARKARLS