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________________ विशेषाव० कोव्याचार्य वृत्ती // 392 // SEARSIOk जिनात् स भावपरंपरको लग्नो येनेयं सामायिकनियुक्तिरायाता, एतस्माच्च वक्ष्माणा जिनमवचनोत्पत्तिःप्रस्तुतेति गाथार्थः // 53-54 // प्रवचनादि| एतच्च प्रासङ्गिकमुक्तमिति, आह च भाष्यकार:-'निज्जुत्ती त्यादि / नियुक्तिसमुत्थानप्रसङ्गतः तपोनियमज्ञानवृक्षारोहणादार- द्वारचर्चा भ्य, कियन्ती भुवं यावदित्याह-यावत्प्रवचनोत्पत्तिः, एतत्किमित्याह-प्रासङ्गिकमेतत्-तं प्रसङ्गेनैतदुक्तं, इदानीं प्राप्रतिज्ञातव्यव| हितस्फुरन्मतिर्भूयोऽप्याह-इत ऊर्ध्व उपोद्घातं वक्ष्ये, कृतमाङ्गल्योपचार इति गाथार्थः // 1355 // अथाद्याप्यपान्तराले वक्तव्य. ||5| // 392 // मुत्पश्यन्नन्यदेवाह-'अच्छउ' इत्यादि / तिष्ठत्वद्यापि तावदुपोद्घातः सान्यासिकः, अनवसरत्वात् , का पुनरियं जिनप्रवचनोत्पत्तिर्नामेति, कियदभिधानं चेह तत् प्रवचनं 1, सोऽस्य को वाभिधानविभागः // 56 // 'एय'मित्यादि / 'एतत् जिनमवचनोत्पत्यादि प्रसङ्गशेषं वक्तुं तत इमं वक्ष्ये, प्रतिज्ञानत्वात् , ततः शेषद्वाराणि 'दारविधीय' इत्येवमादीनि, तत्संग्रहश्चायं // 53 // तद्यथाजिणपवयण उप्पत्ती पवयणएगट्टिया विभागोय।दारविहीयनयविही वक्खाणविही य अणुओगो (नि.१२२), पासंगियमाइतियं दारविहित्ति विहिउ उवग्याओ। अणुओगद्दारं पुण चउत्थमिटुं नयविहित्ति // 1359 / / सीसायरियपरिक्खा वक्खाणविहित्ति कहणमज्जाया। सुत्तप्फासियणिज्जुत्ति सुत्ताणुगमोऽयमणुओगो॥१३६०॥ | किं पुण चउत्थदारं नयविहिमभिधाय तोऽणुओगोत्ति।चउदारासंगहिया वक्खाणविहित्ति किंगहिया॥१३६१॥ बंधाणुलोमयाए केई न जओ तई कमेणंपि / तीरइ निबंघिउ जे तेणेयं बुद्धिपुवत्ति // 1362 / / अंतम्मि उवण्णसिउं पुब्वमणुगमस्स जं नए भणई ।तं जाणावेइ सम्मं वचंति नयाऽणुओगो य // 1363 // सुत्ताणुगमावसरे गुरुसीसाणुग्गहोवएसत्यं / वक्वाणविहिं जंपइ मूलद्दाराणहिकयंपि // 1664 // AAMANACONS
SR No.600320
Book TitleVisheshavashyak Bhashyam Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinbhadra Gani Kshamashraman
PublisherRushabhdev Keshrimal Shwetambar Samstha
Publication Year1937
Total Pages504
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size40 MB
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