________________ SA SROE ज्ञानक्रियार हेतुवादः 4 // 35 // A विशेषाव० 'तहे' त्यादि, सुचर्चम् // 1150-1 // तस्माचरित्रेऽप्रमादवता भवितव्यं येन 'संसारे'त्यादि / संसारसागराद् हृदादिव कूर्मः 'उबुङ कोट्याचार्य उन्मनः कथञ्चित्काकतालीयन्यायात् मा पुनः भूयोऽपि तत्रैव निमजेत् / नन्वज्ञान्यसावित्यत आह-'चरणेत्यादि स्पष्टम् // 1152 // वृत्ती | 'संसारे'त्यादि / अत्र भावार्थ:-जहा हरदो तहा संसारसागरो, जहा तस्स कहंचि चम्मविवरं तहा कम्मविवरं, जहा कुम्मो तहा // 35 // जीवो, जहा तस्स उम्मजणं तहा जीवस्स सुमाणुसत्तलाभो, जहा तस्स कौमुदीचन्द्रप्रकाशप्राप्तिस्तथा जीवस्स जिनधर्मप्राप्तिः, जहा 51 सो तयं दुलभंपि जाणमाणो तओ सयणसिणेहाइणा हेणा मोहिओ तत्थ पडिवज्झइ; एवं एसोवि नाणी नियं सयणं छडेउं परजदणमत्तणीकरेइ, अतः प्रतिषेधोऽभिधीयते-मैवं कार्षीः, तथा च संयमक्रियारहितस्तत्रैव-यतो निर्गतस्तत्रैव निमजेमात्र सन्देह इति, | इतिगाथार्थः // 1153-4 // 'आहे त्यादि स्पष्टा // 55 // अथवा-नेच्छईत्यादि स्पष्टा // 56 // अतः स्थितमेतत्-'सु' इत्यादि / / संतंपी'त्यादि। 'सदपि अधीतमपि, शेषं स्पष्टम् // 1157-8 // चोदक आह-'अंघों इत्यादि / 'अन्धः' अज्ञ एव आलोकावबोधशून्यत्वात् कूर्मवत् , श्रुतं तु किमज्ञानं ?, बोधफलत्वात् , चक्षुष्मत्प्रदीपवत् , उच्यते, तस्यासौ बोधोऽपि यस्मादबोध एव, हिताहितविवेक शून्यत्वेन विफलत्वादन्धस्येवेति गाथार्थः॥११५९।। व्यतिरेकमाह-'अप्पंपी'त्यादि,॥६० / 'किरिया'इत्यादि, स्पष्टम् / / 61 // अपि एच-'णही त्यादि॥६२॥'जहा इत्यादि // 6 // तस्मात्-'हयमित्यादि // 64 / / 'हये'त्यादि // 65 // 'काहिईत्यादि // 66 // किंवदि. त्याह-'अईत्यादि / तेनेति तेन कारणेनान्योऽन्यापेक्षे सत्यौ ज्ञानक्रिये साधनमित्युभयोः संयोगे मोक्ष इति // 67|| प्रक्रम आह& 'पत्तेयेत्यादि, स्पष्टा // 68 // उच्यते-'वीसुमित्यादि व्यतिरेकी दृष्टान्तः // 69 // आह च-'संजोग' इत्यादि // 70 // 'दुग' इत्यादि / 'दुगं' गाणकिरियाओ // 7 // 'वइरेओ इत्यादि // 72 // उत्तरगाथासम्बन्धनार्थमाह-'सहे त्यादि // 73 // REERENCERENCE