________________ विशेषावर वीसुं न सव्वहच्चिय सिकतातेल्लं व साहणाभावो। देसोवगारिया जा सा समवायम्मि संपुण्णा // 1169 / / ज्ञानक्रियकोट्याचार्य संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, नह एगचक्केण रहोपयाइ।अंधोय पंगूय वणेसमेच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा।। योः सापेवृत्ती क्षतासिद्धिः दुगसंजोगम्मि फलं सम्मकिरिओवलद्धिभावाओ / इट्टपुरागमणंपिव संजोए अंधपंगूणं // 1171 // // 348 // बइरेगोजं विफलं न तत्थ सम्मकिरिओवलद्धीओ। दीसंति गमणविगले जहेगचक्के भुवि रहम्मि // 1172 // | ||348 // सहकारित्ते तेसिं किं केणोवकुरुते सहावेणं / नाणचरणाणमहवा सहावनिद्धारणमियाणिं // 1173 // हूँ नाणं पयासयं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो।तिण्डंपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ॥नि.१०३ / असहायमसोहिकरं नाणमिह पगासमेत्तभावाओ। सोहेइ घरकयारं जह सुपगासोऽवि न पईवो // 1175 / / न यसव्वविसोहिकरी किरियावि जमपगासधम्मा सा। जह न तमोगहमलं नरकिरिया सव्वहा हरइ॥११७६॥ दीवाइपयासं पुण सकिरियाए विसोहिय कयारं / संवरियकयारागमदारं सुद्धं घरं होई // 1177 // तह नाणदीवविमलं तवकिरियासुद्धकम्मयकयारं। संजमसंवरियमुहं जीवघरं होइ सुविसुद्धं // 1178 // संजमतवोमई जं संवरनिजरफला मया किरिया / तो तिगसंजोगोवि हु ताउच्चिय माणकिरियाओ॥११७९॥ 'आहे' त्यादि / ज्ञाननय आह, ननु च प्रधान-सारः चारित्रस्य ज्ञानमेव, न तु चारित्रं, मूलत्वात् , अथवा ज्ञानमेव शुद्धमस-15 | हायं कारणमिह, मोक्षस्येति प्रकृतं, अनभिमतपतिषेधमाह-न तु क्रिया, किमित्यत आह-असावपि मोक्षफला क्रिया, यस्मात् 'ज्ञान AMRAPARAN