________________ विशेषाव कोव्याचार्य // 342 // kkkkkkkk3kkkk3Ok तमित्यव्यवच्छित्तिनयाभिप्रायतः सूत्रमेव 'जीत' ति प्राकृतशैल्या 'कृतं रचितं गणधरैः, अथवा 'जीत' मित्यवश्यं गणधरैः कर्त्त ४-वृक्षरूपर्क व्यमेतदिति, तनामकर्मोदयादिति गाथार्थः // 'मुक्के'त्यादि स्पष्टा // 1119 // तथा च-'पदे'त्यादि // अनेकवर्णसमुदायः पदं, है अनेकपदसमुदायो वाक्थं, एवं कृते अर्हद्वचनं कृतं अतः 'तदनुसरता' पदाद्यनुसरता साधुनेति, शेषं स्पष्टम् // 1120 // 'एवं'मित्यादि गतार्था // 1121 // 'सव्वेही त्यादि / यद्वा सर्वैरारचितं तत् , जीतमिति पञ्चमव्यवहारवदव्यवच्छेदनयाभिप्रायात् // 342 // सूत्रमेव जीवितमुच्यते 'जीयं ति प्राकृताभिधानादिति गाथार्थः // 1122 // उत्तरगाथासम्बन्धमाह-'जिनेत्यादि / जिनभणितिरेव सूत्र, गणधरभाषणे को विशेषः, उभयोरपि सूत्रभणनात् ?, उच्यते-'सः' तीर्थकृत् 'तदपेक्षं गणधरापेक्षं भाषते, मातृकापदाक्षराणि उप्पने वेत्येवमादि, अत एवाह-न पुनर्विस्तारेणाचारादिना श्रुतं, आह च, किन्तु॥ अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं / सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवर्त्तई ।नि. 91 / नणु अत्थोऽणभिलप्पो स कहं भासइन सद्दरूवो सो?।सइंमि तदुवयारो अत्थप्पच्चायणफलम्मि // 1125 // तोसुत्तमेव भासइ अस्सप्पच्चायगं न नामऽत्थं गणहारिणोऽवितंचिय करिति को पइविसेसोऽत्थ // 1126 // सो पुरिसावेक्वाए थोवं भणइन उ बारसंगाई। अत्थो तदवेक्वाए सुत्तं चिय गणहराणं तं // 1127 / / अंगाइसुत्तरयणानिरवेक्खो जेण तेण सो अत्यो। अहवा न सेसपवयणहियत्ति जह बारसंगमिणं // 1128 // पवयणहियं पुण तयं जं सुहगहणाइ गणहरेहिंतो। बारसविहं पवत्तइ निउणं सुहुमं महत्थं च // 1129 // निययगुणं वा निउणं निहोसंगणहराहवा निउणा। तं पुण किमाइपज्जंतपमाणमिह कोव से सारो?।११३०॥ RAGARHARRESS