________________ 5 वक्तव्यता विशेषाव० कोव्याचा +4 वृचौ र्थाधिकारसमवताराः | // 299 // +4 // 299 // REC + गाथार्थः // 954 // द्वारं // अथ वक्तव्यता, सा च त्रिविधा, स्वसमयवक्तव्यतादिमेदाद्, आह च समओ जो सिद्धंतो सो सपरोभयगओ तिविहभेओ। तत्थ इमं अज्झयणं ससमयवत्तव्ययानिययं // 955 / / परसमओ उभयं वा सम्मद्दिहिस्स ससमओ जेणं / तो सव्वज्झयणाई ससमयवत्तव्वनिययाई॥९५६।। मिच्छत्तमयसमूहं सम्मत्तं जं च तदुवगारम्मि / वह परसिद्धंतो तो तस्स तओ ससिद्धतो // 957 // सावजजोगविरई अज्झयणऽत्थाहिगार इह सो य / भण्णइ समुदायत्थो ससमयवत्तव्वयादेसो // 958 // अहुणा य समोयारो जेण समोयारियं पइद्दारं / सामइयं सोऽणुगओ लाघवओ नो पुणो वच्चो // 959 // 'समओं इत्यादि सुगमा 955 // केन कारणेनेत्यत आह-'पर' इत्यादि पूर्वार्द्धमसकृद् भावितभावार्थ 'तो' इत्यादि स्पष्टम् // 956 // अपि च-'मिच्छत्ते' त्यादि स्पष्टा // 957 // द्वारम् / (अर्थाधिकारः) 'सावज्जे इत्यादि / इहाध्ययनार्थाधिकारः सावधयोगविरतिः, स च सावद्ययोगविरतिलक्षणोऽर्थाधिकारः समुदायार्थो भण्यते, असावपि च स्वसमयवक्तव्यतैकदेशः संपूर्णाया इति शेषः | // 958 // द्वारम् / 'अहुणे त्यादि / साम्प्रतं समवतारः, स चानुगत इति सम्बन्धः, चकारश्चोक्तवद् भिन्नक्रम इति, सम्भवतः प्रतिद्वारं समवतारितत्वात् तस्य, तत्रैतत्स्यात्-पुनरप्येतद् ग्रन्थावर्तनेन समवतार्यता, तन्त्र, यतो 'लाघवार्थ' ग्रन्थगौरवपरिहाराथ, न पुनरसौ वाच्योऽन्याय्यत्वात् , तदेवमयं क्षयोपशमत उत्क्रामितः // 959 // इत्युपक्रमः समाप्तः। अथ निक्षेपः-किमर्थ पुनरयं | मण्यते ? इत्यत आह भण्णइ धिप्पा य सुहं निक्खेवपयाणुसारओ सत्यं / ओहो नाम सुत्तं निक्खेत्तव्वं तओऽवस्सं // 960 // 4 +4 +4 + 4 +4 ERE X