________________ विशेषाव० कोट्याचार्य वृत्तौ // 285|| +4+4+4++4+34 4x4 4 5 उच्यते, सम्बद्धमप्यनुपयोगेण 'सुर्य'ति न भावातम् , अधीयानस्यानुपयुक्तत्वात , नणु सुतरामनाश्रितं स्वामिनि नास्ति नोआगमतोस्कन्धनिक्षेभावश्रुतं, यदि सम्बद्धमपि द्रव्यश्रुतं प्रतिपन्नमसम्बद्धं तु कस्मात् प्रतिपद्यते ? क्व वा तदित्थंभूतमिति, तस्मादेतदपि परि पपर्यायाः फल्विति गाथार्थः // 896 // तवं तु सूत्रयतीति सूत्रं, पर्यायशब्दानाह-'सुये'त्यादि स्पष्टा // 897 // द्वारं। स्कन्धोऽपि मङ्गल. बच्चतुर्धा, द्रव्यत आह- . // 285 // खंधपएऽणुवउत्तो वत्ताऽऽगमओ स दवखंधो उ / नोआगमओ जाणयभव्वसरीराइरित्तोऽयं // 898 // सच्चित्तो अचित्तो मीसो य समासओ जहासंखं / दुपयाइ दुपएसाइओ य सेणाइदेसाई // 899 // अहवा कसिणोऽकसिणो अणेगदव्यो स एव विण्णेओ / देसाऽवचिओवचिओ अणेगदम्वो विसेसोऽयं // 10 // आगमभावक्खंधो खंधपयत्थोवओगपरिणामो। नोआगमओ भावम्मि नाण-किरिया-गुणसमूहो // 901 // सामाइयाइयाणं छपहऽझयणाण सो समावेसो। नोआगमोत्ति भणइ नोसहो मीसभावम्मि // 902 // गण-काए य निकाए खंधे वग्गे तहेव रासीय / पुंजे पिंडे नियरे संघाए आउल समूहे // 903 // 'खंधे'त्यादि, पूर्वाद्धं स्पष्टम् / / द्वारम् / / नोआगमतस्तु त्रिविध इत्याह-'नोआगमओ'इत्यादि, उत्तरार्धस्पष्टं, व्यतिरिक्तत्रैवि| ध्यमाह-सच्चित्तो'इत्यादि / स चायं यथासंख्यं द्विपदादिरसंख्येयात्मप्रदेशमात्रः नरहयस्कन्धादिः, द्विप्रदेशादिःप्रतीतः, 'सेणातिदेसोय'ति, सेणाए अग्गिमे खन्धे सेणाए मज्झिमे खन्धे' इत्येवमादीति गाथार्थः // 898-99 // 'अहवेत्यादि / अथवा त्रिविधः स्कन्धः-कृत्स्नोऽकृत्स्नोऽनेकद्रव्यश्च, तत्र कृत्स्नः स एव द्विपदादिरवतः, अकृत्स्नः स एव द्विप्रदेशादिरवयवत्वात् , तिपदेसियाउ