________________ विशेषाव कोव्याचार्य // 192 // यद्वारद्वयमभिधाय तृतीयमभिदधदाह 6 सम्यग्मिअंगाणंगपविट्ठ सम्मसुयं लोइयं तुमिच्छसुयं / आसज्ज उ सामित्तं लोइयलोउत्तरे भयणा // 530 // ध्याश्रुते * सम्मत्तपरिग्गहियं सम्मसुयं, तं च पंचहा सम्मं / उवसमियं सासाणं स्वयसमजं वेययं खइयं // 531 // उवसामगसेढीगयस्स होह उवसामियं तु सम्मत्तं / जो वा अकयतिपुंजो अस्ववियमिच्छो लहइ सम्मं // 532 // // 192 // वीणम्मि उइण्णम्मि य अणुदिज्जंते य सेसमिच्छत्ते / अंतोमुहुत्तमेत्तं उवसमसम्म लहइ जीवो // 533 // उवसमसम्मत्ताओ चयओ मिच्छं अपावमाणस्स / सासायणसम्मत्तं तयंतरालम्मि छावलियं // 534 // मिच्छत्तं जमुइण्णं तं खीणं अणुइयं च उपसंतं / मीसीभावपरिणयं वेइज्जंतं खओवसमं // 535 // वेययसम्मत्तं पुण सव्वोइयचरमपोग्गलावत्यं खीणे दसणमोहे तिविहम्मिवि स्वाइयं होइ // 536 // चोदस दस य अभिन्ने नियमा सम्मत्त सेसए भयणामइओहिविवज्जासेऽविहोइ मिच्छंन उण सेसे // 537 // तत्तावगमसहावे सह सम्मसुयाण को पइविसेसो।जह नाणदसणाणं भेओ तुल्लेऽवषोहम्मि // 538 // नाणमवायधिईओ वंसणमिट्ठजहोग्गहेहाओ।तह तत्तई सम्म रोइज्जइजेण तं नाणं // 539 // 'अंगे त्यादि / अङ्गानङ्गप्रविष्टं-आचारावश्यकादि सम्यक् श्रुतं,प्रकृत्येति वाक्यशेषः। प्रतिपक्षद्वारमाह-लौकिकं पुनर्भारतादि मिथ्याश्रुतं,प्रकृत्यैवेति शेषः,स्वाम्यपेक्षया तुप्राह-आश्रित्य तु 'खामित्वं' आधारलक्षणं लौकिके लोकोत्तरेच भजना-लौकिकं मि-1 ध्याश्रुतं मवेदितरदा,एवं लोकोचरमपि,मिथ्यादृष्टिपरिग्रहात् मिथ्याश्रुतमित्येवमादि,परस्थानविनियोगान् ॥५३०॥आह च-'सम्मत्त' SPISESSAN OXIRIR