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________________ विशेषाव कोव्याचार्य वृत्ती // 189 KOLKAHASARAS जह दुब्वयणमवयणं कुण्यिसीलं असीलमसईए / भण्णइ तह नाणंपिहु मिच्छदिहिस्स अण्णाणं // 52 // L संझ्यसंक्षिसदसदविसेसणाओ भवहेउजदिच्छिओवलंभाओ। नाणफलाभावाओ मिच्छद्दिहिस्स अण्णाणं // 24 // ओहो न हेउऍ हेओन कालम्मि भण्णई सण्णी। जह कुच्छियत्तणाओ तह कालो दिद्विवायम्मि // 25 // पंचण्हमूहसण्णा हेऊसण्णा बिइंदियाईणं / सुरनारयगन्भुन्भवजीवाणं कालिगीसण्णा // 26 // // 18 // छउमस्थाणं सण्णा सम्मविट्ठीए होइ सुयनाणं / मइबावारविमुषका सण्णाईआ उ केवलिणो // 527 // मोतूण हेउकालियसम्मत्तकमं जहुत्तरविसुद्धं / किं कालिओवएसो कीरइ आइऍ सुत्तम्मि 1 // 28 // सणित्ति असणित्तिय सव्वसुए कालिओवएसेणं / पायं संववहारो कीरह तेणाइए सकओ // 529 // 'सण्णिस्से'त्यादि, संजिनः श्रुतमिति संजिश्रुतं,सच संझी यस्यासौ संज्ञा भवति,सा च त्रिविधा-दीर्घशब्दलोपाद्दीर्घकालिक्युपदेशेन हेतुवादोपदेशेन रष्टिवादोपदेशेन चेति समुदायगाथार्थः // 507 // अस्यां व्युत्पत्तावतिप्रसंगचोद्यमाह-'जती'त्यादि, यदि | संज्ञासम्बन्धेन संझिनो भवन्तीति बेषे तेन सर्वे पाणिनः संशिन एव प्राप्ताः, एकेन्द्रियाणामपि प्रज्ञापनायां दशविघसंज्ञाभिधानाद्, 'आहारादि 4 क्रोधादि 4 ओहसमा लोगसण्णा' अतः किमुच्यते तेनैवार्यश्यामेन-"असण्णीणं भंते ! असण्णिति कालओ केवचिर होइ "ति गाथार्थः॥५०८॥ उच्यते-'थोवा'इत्यादि, 'इहे'त्यस्यां व्युत्पत्चौ, शेषं स्पष्ट, नहि कार्षापणमात्रधनवांस्तद्वानुच्यते, मूर्तिमान् वा रूपवानिति, अप्रसिद्धेः // 509 // किन्तु-'जहे त्यादि, यह बहुद्रव्यो धनवानित्युच्यते,प्रशस्तमूर्तिसम्बन्धाच्च रूपवानिति,एवमिह महती शोभना च संज्ञाधिक्रियते संज्ञानं संज्ञा-मनोविज्ञानमित्यर्थः, तत्सम्बन्धात् संझिन इति गाथार्थः॥५१०॥साच किं SHORSECORALA HTRA
SR No.600320
Book TitleVisheshavashyak Bhashyam Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinbhadra Gani Kshamashraman
PublisherRushabhdev Keshrimal Shwetambar Samstha
Publication Year1937
Total Pages504
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size40 MB
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