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________________ अक्षरलाभ विशेषाव कोट्याचार्य रीतिः // 175|| // 175 CRORSCOREA | दारं // 'दव' मित्यादि / इह संज्ञाव्यञ्जनाक्षरे द्रव्यश्रुतं इतरत्तु लब्ध्यक्षररूपं मावश्रुतं, एवं च स्थिते पौर्वापर्य घटयन्नाह-मति- थुतमेदेऽपि यदुक्तं 'मुक्त्वा द्रव्यश्रुत मिति तत्र 'दब्वे'त्यादि,संज्ञाक्षरं द्रव्यश्रुतं कारणत्वात् ,अतः 'अक्खरलंभो यति यदुक्तं तद्भावश्रुतं विज्ञानमयत्वात् , श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिवचनेनोभयसमासमाजा, 'वंजण'त्ति व्यञ्जनाक्षरं भावश्रुतं चोक्तमिति गाथार्थः॥ 467-68 // एतच्च कथं लभ्यते इति ?, उच्यते पच्चक्खमिंदियमणेहिं लगभइ लिंगेण चऽक्खरं कोइ / लिंगमणुमाणमण्णे सारिक्खाई पभासंति // 469 // सारिक्ख-विवक्खो-भय-मुवमाऽऽगममेव सब्वमणुमाणं / किंचिम्मत्तविसेसेण वान तं पंचहा ठाइ // 47 // भायअहिअस्सतरा गविआ दट्ठूण भायबिति नउला / मायपिऊणं सरणं गवयस्स य सुत्तओ सग्गो (ताले) इंदियमणोनिमित्तपि नाणुमाणाहि भिजए किन्तु / नाविक्खइ लिंगंतरमिइ पच्चक्खोवयारो स्थ // 472 // जइते अनिययमाणं अणुमाणं तिविहमणुवलद्धीए। अचंत? सरिसर विच्चुय३खपुप्फर कणमासर पम्हुडे३(ताले) नापुणरुत्ता न समत्तलिङ्गसंगाहिया न य गुणा य / नियमियपरिमाणाए किंच विसेसोवलद्धीए 1 // 474 // नाहिगयाऽणुवलद्धी न वा विवक्खोत्ति वा तओसव्वा। सक्खाइग्गहणेण वा न उ जुत्तो तिविहनियमोसे // जेणतिदूरसमीवाणुवलद्धी लक्खणस्सहीणत्ता / सुहुमाभिभवणवट्ठाणसमाणहारादणुवलद्धी॥४७६॥ (ताले) 'पच्चक्ख'मित्यादि / तच्च लब्ध्यक्षरं कश्चित्तमाता प्रत्यक्षं लभते, एतदुक्तं भवति-तच्च कस्यचिदिन्द्रियमनोभ्यां प्रत्यक्षरूपतया चोत्पद्यते, 'लिंगेण च'त्ति अनुमानज्ञानतया चेत्यर्थः, लिंग किमित्यत आह-'लिंगमणुमाणं'ति लिङ्गं हनुमानमुच्यते, ROACANCHAR
SR No.600320
Book TitleVisheshavashyak Bhashyam Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinbhadra Gani Kshamashraman
PublisherRushabhdev Keshrimal Shwetambar Samstha
Publication Year1937
Total Pages504
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size40 MB
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