SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशेषाव० कोट्याचार्य GOLARSA ग्रहणनिसगयोर्योगौनिरन्तरता // 139 // // 139 // तह तणुवावाराहिअमणदवसमूहजीववावारो। सो मणजोगो भण्णइ मण्णइ नेयं जओ तेणं // 364 // जह गामाओ गामो गामंतरमेवमेग एगाओ। एगंतरंति भण्णइ समयाओणंतरो समओ // 36 // केई एगंतरियं मण्णंतेगंतरंति तेसिं च / विच्छिन्नावलिरुवो होइ धणी सुयविरोहो य // 366 // आह सुए चिय निसिरइ संतरियं न उ निरंतरंभणितं / एगेण जओ गिण्हइ समयेणेगेण सो मुयइ // 36 // अणुसमयमणंतरियं गहणं भणियंजओ विमुक्खोऽवि। जुत्तो निरन्तरो चिय,भणइ कहं संतरोभणिओ१३६८ गहणावेक्खाऍतओ निरन्तरंजम्मि जाई गहियाई। नवितम्मि चेव निसिरइ जह पढमे निसिरणं नत्थि।३६९। निसिरिजइ नागहियं गहणंतरियंति संतरं तेणं / न निरंतरं न समयं न जुगवमिह होंति पज्जाया // 370 // गहणं मोक्खो भासा समयं गहनिसिरणं च दोसमया। होति जहण्णंतरओ तंतरस व बीयसमयम्मि॥३७१॥ गहणं मोक्खो भासा गहणविसग्गा य होंति उक्कोसं। अंतोमुहुत्तमेत्तं पयत्तभेएण भेयो सिं // 372 // गहणविसग्गपयत्ता परोप्परविरोहिणो कहं समए ? / समए दो उवओगा न होज किरियाण को दोसो?॥३७३॥ 'गेण्हती त्यादि, तत्र कायेन निवृत्तः कायिकस्तेन कायिकेन, योगो व्यापारः कर्म क्रियेत्यनान्तरं, सर्व एव हि वक्ता कायक्रियया शब्दद्रव्याण्यादत्ते, चोऽवधारणे, स च भिन्नक्रमः, कायिकेनैव, निसृजति-व्युत्सृजति 'मुञ्चति' 'तथे' त्यानन्तर्यार्थः, उक्ति ग्वाचा निर्वृत्तो वाचिकः तेन वाचिकेन योगेन, कथं गृह्णाति निःसृजति वा? किमनुसमयमुत अननुसमयमित्यत आह-एकान्तरमेव गृहाति, निसृजत्येकान्तरं चेव, एतदुक्तं भवति-प्रतिसमयं गृह्णाति मुश्चति चेति, कथं , यथा ग्रामादन्यो ग्रामो अामान्तरं ALASAOUSASUREMES C C
SR No.600320
Book TitleVisheshavashyak Bhashyam Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinbhadra Gani Kshamashraman
PublisherRushabhdev Keshrimal Shwetambar Samstha
Publication Year1937
Total Pages504
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy