________________ विशेषाव० कोट्याचार्य वृत्ती 18 इन्द्रिय विषय मानं // 132 // // 132 // अप्पत्तकारि नयण मणो य नयणस्स विसयपरिमाणं / आयंगुलेण लक्खं अइरित्तं जोयणाणं तु // 340 // नणु भणियमुस्सयंगुलपमाणओ जीवदेहमाणाई / देहपमाणं चिय तं न उ इंदियविसयपरिमाणं // 341 // जं तेण पंचधणुसयनराइविसयववहारवोच्छेओ। पावइ सहस्सगुणियं जेण पमाणंगुलं तत्तो // 342 // इंदियमाणेऽवि तयं भयणिज्जं जं तिगाउआईणं / जिभिदियाइमाणं संववहारे विरुज्झेजा // 34 // तणुमाणं चिय तेण हविज भणिय सुएवितं चेव / एएण देहमाणाई नारयाईण मिजंति // 344 // लक्खेहिं एक्कवीसाऍ साइरेगेहिं पुक्खरद्धम्मि / उदये पेच्छंति नरा सूरं उक्कोसए दिवसे // 34 // नयणिदियस्स तम्हा विसयपमाणं जहा सुएभिहियं / आउस्सेहपमाणंगुलाण एक्केणऽविण जुत्तं // 346 // सुत्ताभिप्पाओऽयं पयासणिज्जे तयं न उ पयासे / वक्खाणओ विसेसो नहि संदेहादलक्खणया // 347 // बारसहिंतो सोत्तं सेसाई नवहिं जोयणेहितो / गिण्हंति पत्तमत्थं एत्तो परओ न गिण्हंति // 348 // दवाण मंदपरिणामयाऍ परओ न इंदियबलंपि। अवरमसंखेज्जंगुलभागाओ नयणवजाणं // 349 // संखेजइभागाओ नयणस्स मणस्स न विसयपमाणं / पोग्गलमित्तनिबंधाभावाओ केवलस्सेव // 350 // 'अप्पत्ते'त्यादि, नयनमनसी अप्राप्यकारित्वाद् रूपं न स्पृष्टमेव गृह्णतः, यदुक्तं-'विषयप्रमाणं च तदिदानी प्रतायते, 'णयणस्से'त्यादि, अयमत्र प्रक्रमः-अत्र त्रिविधमङ्गुलमुक्तं, आत्माङ्गुलमुच्छ्याङ्गुलं प्रमाणाङ्गुलं चेति, तत्राद्यं “जे णं जया मणूसा तेसिं जं होइ माणरूवं ति / तं भणियमिहायंगुलमणियतमाणं पुण इमं तु // 1 // द्वितीयं तु-"परमाणू तसरेणू रहरेणू अग्गयं च वालस्स