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________________ विशेषाव० देवाकांक्षानिवृत्तिः स्यात् , तथा च सति नोत्तरधर्मजिज्ञासया तत्तद्विशेषप्रतिपत्तिर्मवेत् , तथापि च सति व्यवहाराभावः, कुतः 1, उत्त ईहादिकोट्याचार्य रत्रावग्रहनिवृत्तावीहानिवृत्तिरीहानिवृत्तावपायनिवृत्तेः, ईहवोत्तरत्र भविष्यतीति चेत् न, तस्या अवग्रहपूर्वकत्वाद् अवग्रहस्य च सामान्य- स्वरूपं वृत्तौ | ग्राहित्वादीहायाश्च तद्विशेषव्यापाररूपत्वादतोऽयमेष्टव्य इत्यनेन द्वितीयतृतीयगाथयोः 'उग्गहो एक समय'तीत्येवं तावद् व्याख्यातमेतद्व्याख्यानाच्चावग्रहः परिसमाप्त इति गाथार्थः // 288 // साम्प्रतमीहां व्याचिख्यासुराह 8 // 117 // // 117 // इय सामण्णग्गहणाणंतरमीहा सदत्थवीमंसा / किमिदं सद्दोऽसद्दो व ? को होज व संखसंगाणं? // 289 // महुराइगुणत्तणओ संखस्सेवत्ति जन संगस्स / विन्नाणं सोदाओ अणुगमवइरेगभावाओ // 29 // तयणंतरं तयत्याविञ्चवणं जो य वासणाजोगो / कालंतरे य ज पुणरणुसरणं धारणा सा उ // 29 // सेसेसुवि रूवाइसु विसएसुं होति रूवलक्खाई। पायं पच्चासन्नत्तणेणमीहाइवत्थूणि // 292 // थाणुपुरिसाइ-कुटुप्पलाइ-संभियकरिल्लमंसाई। सप्पुप्पलनालाइ व समाणरूवाइविसयाई // 293 // एवं चिय सुमिणाइसु मणसो सद्दाइएसु विसएसु / होतिदियवावाराभावेऽवि अवग्गहाईया // 294 // 'इये'त्यादि, यथावत् स्वधियाऽनुसरणीयम् // 289 // अपायमाह-'महुरादी'त्याद्यपि (सुगम) // 290 // धारणामाह|'तयणंतरे'त्याद्यपि // 291 // तदेवं शब्दसूत्रं विषयविभागेन व्यवस्थाप्य यदुक्तं सूत्रकारेणैव ‘एवं एएणं अभिलावेणं अव्वनं रूवं है रसं गन्धं फासं च' इत्यादि, तदङ्गीकृत्याह-'सेसेसुध्वी'त्यादि, स्पष्टार्था, प्रत्यासन्नत्वं प्रायःसमानधर्मित्वमिति // 292 // तथा च-| थाण्वि'त्यादि, स्वधिया नेयम् // 293 // यदुक्तम् “से जहा नामए केइ पुरिसे अन्य सुविणय'मित्यादि, तच्छोधयन्नाह-'एवं CAUSIUSAUSTAUSSTECH36 SCHOLASSISTENT
SR No.600320
Book TitleVisheshavashyak Bhashyam Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinbhadra Gani Kshamashraman
PublisherRushabhdev Keshrimal Shwetambar Samstha
Publication Year1937
Total Pages504
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size40 MB
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