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श्रीदश
| गाहापुव्वद्धेण भण्णइ, तंजहा- 'मायागारवसहिओ० ॥३०५॥ अद्धगाथा, जोऽवि मायासहिओ य इंदियणोइंदियाणं । इन्द्रियादिवैकालिक निग्गह करेइ सो अप्पसत्थे पणिधी, तत्थ मायासहिया इंदियपणिही इमा, तंजहा-सुणमाणोऽविण आलवेज्जा, वरं लोगो
है। प्रणिधिः चूर्णी. जाणतो जहा अहो झाणोवगओ एसोत्ति, उक्तं च-"निमीलयेदक्षि निमीलितेन, आकुप्यमानो बधिरा(भ)भावात् । प्रत्यक्षवादी न ८ आचार
भवेत् कदाचित, (सं) प्राप्तकाले असिवस्थिते य ( छिनत्ति) ॥१॥" तहा चोरो व दव्वकारणा य गोविव पसंतदिट्ठी अच्छइ, प्रणिधौ
मा मे हुन्तं दिदि पासिऊण कोइ गिण्हेज्जा, तहा कोइ पुरिसो माहिलाए संसत्तो पागडं दिद्विविगारं ण दरिसयइ जो घेप्पति, ॥२६८॥
भणियं च- 'विरहे अंजलिकरे परे, जणाउले अणवयक्ख वच्चंतं । वीर! विणीय! वियक्खण, को णाम तुमे न कामेज्जा ॥१॥ तहा अग्घायमाणोऽवि कोइ परतित्थियाई जितिदियाऽहमिति लोगपत्थि(न्ति)णिमित्तं दुब्भिगंधस्स णो उब्वियइ, तहा उक्कडोऽवि से लब्भमाणे मायाए णो गेण्हइ, गोमयं सेवालं च भक्खेइ, तहा कडमुच्छिओ कोयि फरिसमाणोऽवि ण बेतित्ति, एवमादि मायासेविस्स पंचविधा इंदियपणीधी अप्पसत्था भवति, तथा गारवेणावि, कोयि मणुस्सो सद्दे सुणमाणेवि ण आयर करेइ, वरं। लोगो जाणतो अणुभूयकल्लाणो एसोत्ति, एवं कंताणि स्वाणि वा पासंतो गारवेण अणादरं करेइ, वरं लोगो जाणतो बहा | एतस्स एतेसु जहा न विम्हयत्ति, एवं गंधरसफासावि भाणियव्या, भणिया इंदियपणिधी । इदाणिं णोइंदियपणिधी भण्णइ, तत्थ मायाए संकिट्ठोऽवि आकासं दरिसइ, मा सो पडिसंवादी णासिहित्ति उत्तरं वा देहित्ति एवमादि, गारवे जहा मा मे अमुगो
जाणिहित्ति जहा एसो कोवित्तिकाऊण संकिट्ठभावो अच्छइ ण आकारं करेति, माणेवि, मायाए, कोऽवि कुलवंसउद्धरणनिमित्त Pणीयछिद्दण्णसी वक्कमइ, गारखे उदाहरणं नत्थि, जम्हा जो चेव माणो सो चेव गारवो, लोभे जइ कोइ पुव्वं मायासहियं जिणा
ACARRARIA
RECEMBE-THSRO
॥२६८॥