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________________ श्रीदशवैकालिक चूर्णी ॥१८॥ *SHRSS तत्थ फासुएसणिजं णाऊण पडिगाहेजा । किंच 'गुम्विणीय उवन्नत्थं' सिलोगो (९८-१७१) गम्भी जीए। बालस्तन्यअस्थि सा गुग्विणी, तीय दोहलगादीणिमित्तं विविहमणगप्पगारं, उवन्नत्थं नाम उवकप्पियं, तं पुण भोयणं पाणं वा दयाने विधिः होज्जा, तत्थ जं सा मुंजइ कोइ ततो देइ तं ण गेण्हियवं, को दोसो, कदाइ तं परिमियं भवेजा, तीए य सद्धा ण विणीया* | होजा, अविणीये य डोहले गब्भपडणं मरणं वा होजा, भुत्तसेसं पडिच्छइ-जं से भुत्तुव्वरियं तं पडिच्छेजा। किं च 'सिया य समणट्ठाए' सिलोगो (९९-१७१) सिया णाम कदायि गुब्विणी समणट्ठाए-समणनिमित्तं, कालमासिणी नाम नवमे मासे | गन्भस्स वट्टमाणस्स, जइ उडिया संजतढाए निसीएजा, जहा निसण्णा सुहं भिक्खं दाहामित्ति निसीयइ, निसण्णा संजतट्ठाए | उद्वेति, तमेतेण पगारेण देंतियं पंडियाइक्खे-न मे कप्पइ तारिस, जा पुण कालमासिणी पुबुद्विया परिवेसेंती य थेरकप्पिया गेहंति, जिणकप्पिया पुण जद्दिवसमेव आवनसत्ता भवति तओ दिवसाओ आरद्धं परिहरंति, तम्हा देंतियं पडियाइक्खे-न मे कप्पइ तारिस । किं च- 'थणगं पेजमाणी' सिलोगो (१०१-१७१) थणे अद्धदिन्ने जइ सा तं साहुणो अट्ठाए दारगं वा दारिगं वा अद्धपन्जियं निक्खिविऊण पाणगं भत्तं वा आहरेजा, तत्थ गच्छवासी जति थणीवी णिक्खित्तो तो ण गेण्हति रोवतु वा मा वा, अह अबंपि आहारेति तो जति न रोवइ तो गेहंति, अह अपियंतओ णिक्खिचो थणजीवी रोवइ तो ण गेण्हति, गच्छनिग्गया पुण जाव थणजीवी ताव रोवउ वा मा वा अपियंतओपियंतिओवा न गण्डंति, जाहे अबंपि आहारेउं पयत्तो | भवति ताहे जइ पियंतओ तो रोवइ मा वा ण गेहंति, अपियन्तओ जदि रोवइ परिहरंति अरोवंते गेहंति, सीसो आह- को तत्थ ॥१८॥ | दोसोति ?, आयरिओ आह-तस्स निक्खिप्पमाणस्स खरेहिं हत्थेहिं घेप्पमाणस्स य अपरित्तत्तणेण परितावणादोसो मजारा तन रोवइ तो गेहात वासो जति थणजीवी पाहणो अट्ठाए दारगंवा/5
SR No.600287
Book TitleDashvaikalik Churni
Original Sutra AuthorJindasgani Mahattar
Author
PublisherRushabhdevji Keshrimalji Shwetambar Samstha
Publication Year1933
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
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