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________________ श्रीजैन कथासंग्रहः ॥४०॥ विमुक्तजयति । भमिही सुरं सुसढो, अइभीमे भवसमुद्दमि ॥ ८ ॥ अह गोअमगणहारी, पुच्छड़ कह दुक्करं तवच्चरणं । काउं भवंमि भमिही ? भयवं ! सो दुक्खसंतत्तो ॥ ९ ॥ भणइ पहू नहु नाया, मूलगुणाणं स उत्तरगुणाणं । जयणान व गुरुवयणं, विहियं तेणं भवे भमिही ॥ १० ॥ तवचरणं दुच्चरणं, जारिसअं तेण गोअमा विहिअं । तस्समभागेण वि, जंति सिवं जयणसंजुत्ता ॥ ११ ॥ जइ पुण मोअम ! सुसढो, भुंजंतो आउकायमिह नेव । तो जंतो परमपयं जिणवरआणाइ संजुत्तो ॥ १२ ॥ किञ्च मासं दुमासखमणं, छम्मासे जाव भोइआ रिणि । आयाणा पुव्वं, कुणंति जं तिव्वतवचरणं ॥ १३ ॥ पढमदिणदिक्खियस्स वि जइणो जयणाइ, लक्खमंसे वि । न य अग्घड़ तं जम्हा, खमदमजयणाइ परिहीणं ॥ १४ ॥ जिणदिक्खं पि गहेडं, जयणविहूणा कुति तिव्वतवं । जिणआणखंडगा, जे गोअम ! गिहिणोवि अब्भहिया ।। १५ ।। एवं विसुद्धजयणा - परिवजियस्स, निब्बुज्जअस्स वि तवे सुसस्स सम्मं । रिंछोलिमुज्जलतरण दुहाण सुच्चा, ता भो करेह जयणं चिय धम्मकामा ! ।। १६ ।। ॥ इति यतनाविषये छेदग्रन्थोद्धता सुसढकथा समाप्ता ॥ ॥ इति सुसढचरित्रं समाप्तम् ।। । श्री अथ सुसढचरित्रम् । ॥४०॥
SR No.600265
Book TitleJain Katha Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorKalyanbodhivijay
Author
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1998
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size16 MB
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