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श्रीजैन कथासंग्रहः
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का सा अजा, लक्खणनामा तओ गुरू भणइ । निसुणसु अज्जे लक्खण-चरियं वेरग्गसंजणयं ॥ ७१ ॥ हुंडअवसप्पिणीए, इमाउ चडवीसिगाउ पुरओ उ । अवसप्पिणीइ चउवीस-गाइ इहयं असीइमीए ॥ ७२ ॥ जड़वा चउवीसइमो, तित्थयरो आसि सत्तहत्थतणू । धरणिपयट्ठिय नयरे, जंबूदाडिमनिवो तइआ ॥ ७३ ॥ तस्सासि सिरिमइ पिआ, बहवो तीए सुआ न उण धूआ । तो सा निवसंजुत्ता, करेइ उ (व) वाइए बहु ॥ ७४ ॥ अह तीइ लक्खणजुआ, जाया नामेण लक्खणा धूआ । सुरसुंदरिसमरूवा, कमेण सा जुव्वणं पत्ता ॥ ७५ ॥ अह जंबुदाडिमो तं, दडूणं जुव्वणंमि संपत्तं । विम्हियरूवाइगुणो, अत्थाणत्थो भणइ एवं ॥७६॥ भो ! भो ! सुहिसामंता !, इमाइ कुमरीड़ को वरो जुग्गो ? । तो तेहिं भणियमेयं, सयंवरो चेव
॥ ७७ ॥ तरन्ना कारविओ, सयंवरमंडवो सुहमुहुत्ते । आहूआ नरवइणो, नरिंदपुत्ताय सप्पणयं ॥७८॥ अह सा सिअवत्थधरा, सिअचंदणचच्चिआ य सिअकुसुमा । सिअछत्तचामरजुआ, सयंवरं लक्खणा पत्ता ॥ ७९ ॥ तो तीई कंचुइणा, जंबूदाडिमनिवस्स वयणेण । नामे गुत्ते कहिउं, निवपुत्ता दंसिआ बहवो ॥ ८० ॥ एगस्स रायपुत्तस्स, रयणपयंडस्स कंठदेसंमि । पक्खित्ता वरमाला, पहिट्ठचित्ताइ कुमरी ॥ ८१ ॥ परिणीआ सा तेणं, अह तीए असुहकम्मउदएणं। पंचत्तं संपन्नो, चउरीमज्झमि सो कुमरो ।। ८२ । दोसुवि वसु तओ, जाओ हा हा ! रवो अइमहंतो । तो तस्स सोगविहुरेंहिं, निम्मिओ अग्गिसक्कारो ॥ ८३ ॥ तो रन्ना
। श्री अथ सुसढचरित्रम् ।
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