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श्रीजैन कथासंग्रहः
सुव्रतऋषि कथानकम्।
॥११॥
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किमपि मग्गामि ॥१०६ ॥ तो नयरसामिणा पुण कहियं, जामणसि ठितं मग्ग। वाणीए सामी पुण जं, पच्छसि देमि तं सव्वं ॥ १०७ ॥ सिट्टि पत्थइ तओ, चोराणमभयदाणदाणं च । दिन्नं चिय भूवइणा, चोरा सिटेण तो वुत्ता॥१०८ ॥ तो चोरानियठाणं, गच्छेहिं समाहिणा कयपमोया। थंभियमुक्का य गया, नियनियभुवणे सुरंगधरा ॥ १०९ ॥ राया भणेइ सिटिं, निसि चोरा किं न वारिया तत्थ । सुव्वयसिट्ठीवि भणइ, नियम नियमा न भंजेमि ॥ ११० ॥ आशंदियो य राया, सिद्धिं सुकुटुंबयं समाणेइ। धम्मम्मि निच्चलत्तं, सुपसंसइ सपरिवारो य॥१११॥ नियगेहं संपत्ता, रायालोया तलारपमुहाय । जिणधम्मस्स पसंसा-परायणा सव्वकालंमि ॥ ११२॥ पुणरविगारसि दिवसे, तवं च-पोसहं कुणइ सिट्ठी। अग्गीलग्गा नयरे, लोया सव्वे विय रडंति ॥ ११३ ॥ पाडोसीएण तइया, बुबा दत्ताय सिट्ठी गेहेसु । अग्गीलग्गा नि सरसु, गेहाउ पलायणं कुणह ॥ ११४ ॥ तं सुणिउणं सिट्ठी, सुकुटुंबो काउसग्गमावन्नो। ठीओ य निच्चलमणो, मणवयकाएण न हु खुद्धो॥ ११५ ।। अग्गीविहु सिट्ठिगिहं, हर्ट वक्खारि वत्थु परिभोगं । मोइत्ता सव्वं चिय नयरं, बालेई जालाए ॥ ११६ ॥ जिणभवणं चिय पोसहसाला, साहूहिं सहिय मोइत्ता। निहणंपत्ता सयमेव, जंपइ लोओ पभायंमि।। ११७ ॥ सिट्ठिपभावेणं चिय, हर्ट, वक्खारि गिहगयं सव्वं । सिट्ठिसंबंधियं तह, न जालियं अग्गिणाऽवि तहा ॥ ११८॥ राया
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॥११॥