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२१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी १
१ पड़िवत्तीओ उदए, तह अस्थि मणेसुय॥भय घाए कण्णकला,मुहुत्ताणगती तिय॥१३॥
निक्वममाणे सिग्धगती,पविसंते मंदगति तीय॥चुलसीयसयंपुरिसाणं, तेसिंचपडिवत्ती-ओ ॥ १४ ॥ उदयंमि अट्ठभणिया, भयग्घाए दुवेयपडिवत्ती चत्तारि मुहुत्तगती,
होति वीयंमि पडिवत्ती ॥ १५ ॥ आवलियमुहुत्तग्गे, एवं भागाय जोगरस॥ कुलायतीसरे अंतरपाहुडेमें सूर्य मंडले २ एक मुहूर्त में कितना गमन करे ॥ १३ ॥ प्रथम मांडले से ल कर बाहिर के मांडल पर यथोक्त जाते हुए शीघगति होवे और सब के बाहर के मंडल से अंदर के मांडले में प्रवेश करते मंदगति होवे यो १८४ मंडल को मुहुर्त के प्रमाण में गतिप्रमाण पुरुषपडिवृत्ति कही। ॥ १४ ॥ अब जो तीन अंतर पाहुडे कहे उममें से पहिले अंतर पाहुदे में आठ पडिवृति दूसरे अंतर पाहुडे में दो पहिवृति और तीसरे अंतर पाहुडे में चार पांडवृत्ति कही; इस तरह दूप्तर पाहुडे के तीन अंतर पाहुडे में अन्य तीर्थीकी प्ररूपना रूप चउदह पडिबृत्तियों हुइ ॥ १५ ॥ अब दशवे पाहुडे के शवीस अंतर पाहुडे कहते हैं १ प्रथम अंतर पाहुडे में नक्षत्र की आवलिका का कथन है अर्थात् चंद्रमा मूर्य दोनों का साथ कितने नक्षत्र में अनुक्रम से योग होता है इस में अन्य ती की रूपना रूप पांच पडिबृति कही है. दूसरे अंतर पाहडे में चंद्र की साथ नक्षत्र का कितने महुर्त तक योग होता है और मूर्य की साथ कितनी अहोरात्रि में योग होता है. ३ तीसरे अंतर पाहुड में पूर्व,पश्चिम भाग की वक्तव्यता है ४ चौथे
पकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाद जी.
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