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चविकप्पति । मंडलाणय संठाणं, विक्वंभ अट्रपाहुडा ॥ ११ ॥ छप्पंचय सत्तेवय, ॐ अट्ठय तिन्निय हवंति पडिवत्ती॥पढमस्स पाहुडस्स आहवंति एयाओपडिवत्ती ॥१२॥ सका कथन है, इसमें अन्यतीर्थ की प्ररूपणा रूप तीन पहिवत्तियों है. इस तरह प्रथम
पाहुरे के अंतर पाहुढे में सब मिलकर अन्यतीर्थी की प्ररूपणा रूप गुनतीस पडिवृत्तियों हुइ. ॥११॥ अब प्रथम पाहुड में अलग २ पडिवृत्ति कहते हैं. प्रथम पाहुडे से चौथे पाहुई तक सात पडिवते हैं."
पांचवे पाहुरे में पांच पडिवृत्ति हैं, छठे पाहुडं मे सात पडिवृत्ति है, मात वे पाहुडे में आठ पडिवृति हैं | और भाठवे पाहु में तीन पहिवृत्ति है, इन सब पडिवृति में अलग २ परमत की प्ररूपणा कह कर
फीर भगवंत ने स्वमत की प्ररूपना की है. ॥ १२ ॥ अब दूसर पाहुदे के तीन अंतर पाहुडे कहते हैं
प्रथम अंतर पाहुडे में सूर्य कहां उदय होना है और कहां अस्त होता है उस का कथन है, दूसर अंतर | पाहुडे में भेदघात व कर्णकला हानि का कथन है. अर्थात भेद कहते है मंडल के अंतर के
और घात कहते हैं उन पर गमन करने को. इस विषय में एकेक मन की मरूपना की है, जैसे विवक्षित मंडल में सूर्य फीर तदनंतर अभ्य मंडल में जावे, तथा कर्ण कला कर्ण को ही भाग सम्मुख कर परमन के अनुसार मे काल कहा. जैसे विवक्षित मंडल में दोनों मूर्य अन्दर क्षण मे प्रवेश कर पहिले पीछे की दोनों कोरों लकीरं रूप कर प्रतिपूर्ण यथावस्थित मंडल को वच्छिपने यों फोर दूसरे मंडल से कर्ण को ही कही. यह भाग रूप काल मात्रा करे फेर दूसरे मंडल के सम्मुख अंगीकार करे।
सप्तदश चंद्र प्रवति सूत्र षष्ठ-शा448
Niti+ प्रथा पाहुडा
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