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________________ 4 ११८ मुनि श्री अपालक ऋषिणी अनुवादकामास 8 भवति, दोहिं एगट्ठी भाग ऊणे. दुवालस्स मुहत्ता राई भवति देहिं अहिया ॥ से निक्खममाणे मुरिए दोच्च स अहे रत्तंमि अन्भंतरं तच्चं मडल जाव चारंभ चिरति ॥ ता जयाणं परिए अध्मंतर तम मंडलं जाव चारं चरति तयाण दो भाग उयाए दोहिं राइदिए हैं दिवाखम निवटा गइ वनस्ल अभाला चार चरति, अट्टारमातमहि मते मंडल छन , त अदु मह 7 दाल च रहे ऊगे, दवाल महत्ताराई भात चउहि दयाल नवममाण गरिए तयाणंतराआ तयाणतर मडलं संकममा २ सांतेख तस्ल आभमाग र मन्त्र बाहिरं. उस को ६१ से मुना करने से ३६६ . होरे, इस को दो का भागहेने से को एक २ सूर्य के प्रत्येक मंडल के १८३० भाग होवे वैसे एक भाग क्षेत्र की हानि द्धि करना) इम सपय एसठिये दो भाग कम का दिन व दो माग अधिक की रात्रि हानी है. हा से नीकलना हा मर्य दूरी अहारात्रि में गावर चाल चलता है. व सूर्य तीर एयर चाल चलना है सर एक मंडल के १८३०॥ के भाग बना कर उसमें के दो भाग प्रकाश का दिन प्र पीकर रात्रि के क्षेत्र में बड़ा चाल चलता है. इस समय एकमठिये चार भाग कम अठ.१६ मुहूर्त का दिन व जघन्य चार भाप सावधिक धारह मुहूर्न की रात्रि है. इस तरह नीकलता हु सूर्ग एक पछि एक मंडल पर रहता दुवा लाला लदेक्समायनी ज्वालाप्रसादी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600254
Book TitleAgam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_chandrapragnapti
File Size8 MB
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