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________________ बृहद्वृत्तिः उत्तराध्य. से चिरंपि ॥४३॥ विसं तु पीयं जह कालकूडं, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीअं । एसेव धम्मो विसओव- महानिर्महै वन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो ॥ ४४ ॥जो लक्खणं सुविण पउंजमाणो, निमित्तकोऊहलसंपगाढे । कुहेड-4. न्धीया० विजासवदारजीवी, न गच्छई सरणं तंमि काले ॥ ४५ ॥ तमंतमेणेव उ से असीले, सया दुही विपरि॥४७७॥ यासुवेइ । संधावई नरगतिरिक्खजोणी, मोणं विराहित्तु असाहुरूवे ॥४६॥ उद्देसियं कीयगडं नियागं, न मुच्चई किंचि अणेसणिजं । अग्गीविवा सव्वभक्खी भवित्ता, इओ चुओ गच्छह कट्ट पावं ॥४७॥ न तं अरी कंठ छित्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहिई मनुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दद्याविहूणो॥४८॥ निरत्थया नग्गरुई उ तस्स, जे उत्तमट्टे विवयासमेह । इमेवि से नत्थि परेवि लोए, दुहओऽवि से झिज्झइ तत्थ लोए ॥४९॥ एमेवाहाछंदकुसीलरूवे, मग्गं विराहित्तु जिणुत्तमाणं । कुररी विवा भोगरसाणु गिद्धा, निरहसोया परितावमेइ ॥५०॥ IPI 'इयम्' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणा 'हुः' पूरणे 'अन्या' अपरा 'अपिः' समुच्चये 'अनाथता' अखामिता, यदभावतोऽहं । ४/ नाथो जात इत्याशयः, 'णिव'त्ति नृप तामित्यनाथताम् ‘एकचित्तः' एकाग्रमनाः 'निभृतः' स्थिरः शृणु, का| ॥४७७॥ पुनरसावित्याह-निर्ग्रन्थानां धर्मः-आचारो निर्ग्रन्थधर्मस्तं 'लभियाणवित्ति लब्ध्वाऽपि 'यथा' इत्युपप्रदशेने दन्ति तदनुष्ठानं प्रति शिथिलीभवन्ति 'एके' केचन ईषदपरिसमाप्ताः कातराः-निःसत्त्वाः बहुकातराः 'विभाषा सुपो Jain Edue n e For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600235
Book TitleUttaradhyayansutram Part 02
Original Sutra AuthorVadivetal, Shantisuri
Author
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_uttaradhyayan
File Size10 MB
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