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एतपंडिए णं भंते ! मणुस्से किं नेर० पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवलोएस उवव० १, गोयमा ! एगंतपंडिए णं मणुस्से आउयं सिय पकरेइ सिय नो पकरेइ, जड़ पकरेइ नो नेरइया० पकरेइ नो तिरि० नो मणु० | देवाउयं पकरेह, नो नेरइयाउयं किच्चा नेर० उव० णो तिरि० णो मणुस्स० देवाउयं किच्चा देवेसु उव०, से केण| द्वेणं जाव देवा० किच्चा देवेसु उववज्जइ ?, गोयमा ! एगंतपंडियस्स णं मणुसस्स केवलमेव दो गईओ पन्नायंति, तंजहा - अंतकिरिया चैव कप्पोवचत्तिया चेव, से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ ॥ बालपंडिएणं भंते ! मणूस्से किं नेरइयाउयं पकरेह जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ ?, गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ, से केणट्टेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ ?, गोयमा ! बालपंडिए णं मणुस्से तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं | सुवयणं सोचा निसम्म देसं उवरमइ देस नो उवरनह देसं पञ्चकखाइ देसं णो पञ्चक्खाइ, से तेणट्टेणं देसोवरमदेसपच्चक्खाणेणं नो नेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ, से तेणद्वेणं जाव देवेसु उववज्जइ । ( सू० ६४ )
'एत पंडिए 'ति एकान्तपण्डितः - साधुः 'मनुस्सेत्ति विशेषणं स्वरूपज्ञापनार्थमेव, अमनुष्यस्यैकान्तपण्डितत्वायोगात्, तदयोगश्च सर्वविरतेरन्यस्याभावादिति, 'एगंतपंडिए णं मणुस्से आउयं सिय पकरेइ सिय नो पकरेइत्ति, | सम्यक्त्वसप्तके क्षपिते न बभात्यायुः साधुः अर्वाक् पुनर्वभातीत्यत उच्यते - स्यात्प्रकरोतीत्यादि, 'केवलमेव दो गईओ
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