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आवश्यकहारिभद्रीया
कायोत्सर्गनिक्षेपः
॥७७३॥
वायाईधाऊणं जो जाहे होइ उक्कडो धाऊ । कुविओत्ति सो पवुच्चइ न य इअरे तत्थ दो नत्थि ॥१४६८॥ एमेव य जोगाणं तिण्हवि जो जाहि उक्कडो जोगो। तस्स तहिं निद्देसो इअरे तत्थिक्क दो व नवा ॥ १४६९ ॥ काएविय अज्झप्पं वायाइ मणस्स चेव जह होइ । कायवयमणोजुत्तं तिविहं अज्झप्पमाहंसु ॥१४७०॥ जइ एगग्गं चित्तं धारयओ वा निरंभओ वावि । झाणं होइ नणु तहा इअरेसुवि दोसु एमेव ॥१४७१॥ देसियदंसियमग्गो वचंतो नरवई लहइ सइं। रायत्ति एस वच्चइ सेसा अणुगामिणो तस्स ॥ १४७२॥ पढमिल्लुअस्स उदए कोहस्सिअरे वि तिन्नि तत्थथि । नय ते ण संति तहियं न य पाहन्नं तहेयंमि ॥ १४७३ ॥ मा मे एजउ काउत्ति अचलओ काइअं हवइ झाणं । एमेव य माणसियं निरुद्धमणसो हवइ झाणं ॥१४७४ ॥ जह कायमणनिरोहे झाणं वायाइ जुज्जइ न एवं । तम्हा वई उ झाणं न होइ को वा विसेसुत्थ ? ॥१४७२ ॥ मा मे चलउत्ति तणू जह तं झाणं निरेइणो होइ । अजयाभासविवजस्स वाइअं झाणमेवं तु ॥ १४७६॥ एवंविहा गिरा मे वत्तव्वा एरिसा न वत्तव्वा । इय वेयालियवकस्स भासओ वाइयं झाणं ॥ १४७७ ॥ मणसा वावारंतो कायं वायं च तप्परीणामो। भंगिअसुअं गुणतो वहइ तिविहेवि झाणंमि ॥ १४७८ ॥ । 'देहमतिजडसुद्धी'ति देहजाड्यशुद्धिः-श्लेष्मादिप्रहाणतः मतिजाड्यशुद्धिः तथावस्थितस्योपयोगविशेषतः, सुहदुक्खतितिक्खय'त्ति सुखदुःखतितिक्षा सुखदुःखातिसहनमित्यर्थः, 'अणुप्पेहा' अनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षा च तथाऽवस्थितस्य भवति, तथा 'झायइ य सुहं झाणं' ध्यायति च शुभं ध्यानं धर्मशुक्ललक्षणं, एकाग्र:-एकचित्तः शेषव्यापाराभावात् कायोत्सर्ग इति,
॥७७३।।
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