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विद्यारत्नमहानिधी
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भाषा-ॐ, शून्यद्वयं-दो हकार, पष्ट स्वरायंबिंदू संयुतम्-पांचवा स्वर [उ] बिन्दुसहितमीलाना, शून्यद्वयं-दोह-|| कार, ह्येकादशस्वर समन्वीतम्-ग्यारवास्वर (ए) मिलाके, सप्तवर्गादिमंवर्ण-सातवर्गके आदिकेवर्ण (क, च, ट, त,
चतुर्थोऽ प, य, श) षष्टस्वर विभूषितम्-छटावर (ऊ) सहित, बिन्दुपेतंच-बिंदु अनुस्वार देकर, झाँ, हूं, फुडितिवर्ण विभूषि- धिकारः४ त-फट, मंत्रोद्धारः-ॐ हुं हुं हे हेंकू चूंढूंतूं पूं यूं शू झाँहूं फट्
सर्वकर्मकरं मंत्रं, श्रीमत्पार्श्वजिनशितुः । लक्षजापप्रदानेन, साधयित्वा स्फुटं कुरु ॥४७॥ राजद्वारे व्यवहारे, सभायां देशनाविधौ । विद्वद्विवादवेलायां, परविद्यांतकर्मणि ॥४८॥ वश्ये विद्वेषणे मोहे, पापोच्चाटणकर्मणि । तीर्थ प्रभावनादौच, रुष्टानुनयकर्मणि ॥४९॥
एषएव महामंत्रो, महाकल्याणकारकम् । सर्वदा सर्व कार्येषु, स्मरणीया मनीषिभिः ॥५०॥ भाषा-सर्व कार्यको करनेवाला श्रीपार्श्वनाथभगवानका ये मंत्र एक लक्ष जाप करनेसे सिद्ध होताहै. ये मंत्र राजदरबारमें, व्यवहारमें, सभामें, व्याख्यानदेनेमें, विद्वानसे वादविवाद करनेमें, दुसरेकी विद्या नष्ट करनेमें, वश्य, विद्वेषण, मोह तथा पापीयोंका उच्चाटन करनेमे, तीर्थकी प्रभावना आदि करनेमे, रुठे हुयेको मनाने में काम आतीहै. ऐसा यह महाकल्याणकारक महामंत्र सर्वदा सर्व कार्यमे ज्ञानी मनुष्यको स्मरण करना चाहिये.
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