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उत्तराध्ययन
सूत्रम् १९३०
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||6 प्रमादस्थान
नाम द्वात्रिंशमध्ययनम्
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तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, भावे अतित्तस्स परिग्गहे अ। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुचई से ।।९५।। मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पओगकाले अ दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, भावे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ।। ९६।। भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तए जस्स कए ण दुक्खं ।।९७।। एमेव भावंमि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुद्दचित्तो अ चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ।।१८।। व्याख्या - भावेऽनभीष्टस्मरणाद्यात्मकेऽनिष्टवस्तुगोचरे वा गतः प्रद्वेष, विस्मरतु ममास्य नामापीत्यादिकम् ।।९९।।
भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमझेवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ।। ९९।।६।। व्याख्या-भावे इष्टानिष्टस्मरणात्मकेरम्यारम्यवस्तुगोचरेवाअरक्तोऽद्विष्टश्चेति अष्टसप्ततिसूत्रावयवार्थः ।।१९।।उक्तमेवार्थसक्षेपेणाह
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