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________________ श्री प्रशमरति प्रकरणम् ॥ ३३ ॥ Jain Education In ++++++++KO सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोवीर्यात्मको जिनैः प्रोक्तः । पञ्चविधोऽयं विधिवत्साध्वाचारः समनुगम्यः ॥ ११३॥ अर्थ- गुणदोषना विपर्यासथी विषयमूच्छित थयेला आत्मानुं, भवभ्रमणथी भय पामेला भव्यजनोए आचार चिंतन वडे समस्त प्रकारे रक्षण करवुं. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप अने वीर्यरुप पांच प्रकारनो साधुनो आचार जिनेश्वरोए कहेलो छे तेने सम्यग् रीते अनुसरखं ११२ - ११३. विवेचन - भा रीते जे कोइ गुणने दोषरूपे जुए के अने दोषने गुणरूपे जुए छे, दृष्टिविपर्यासथी विपरीतता देखे छे शब्दादिक विषयोमा तन्मय थइ जाय छे - थयेलो होय छे. तेवा मूढ-भज्ञान- अविवेकी आत्माने नरकादिक मवभ्रमणनी भीति पामेलाए प्रथम आचारांग सूत्रना अर्थने अवगाही लक्षमां लही सारी रीते बचावी लेवो जोइए. ११२. ए आचार पांच प्रकारनो छे. ते संक्षेपथी बतावे छे: तत्वार्थश्रद्धान लक्षण प्रथम सम्यक्त्वाचार, ते सम्यक्त्वथी सहाय पामेल बीजो मत्यादिक ज्ञानपंचकाचार, अष्टविध कर्मचयरिक्त करवाथी त्रीजो चारित्राचार, अनशनादिक द्वादशविध तप करण रूप चोथो तपाचार अने श्रात्मशक्ति फोरववा रूप पांचमो वीर्याचार-ए पांच प्रकारनो आचार प्रथम अंगमां अर्थथी श्री तीर्थकर भगवंतोए अने सूत्रथी गणघर महाराजाओए निरुपेलो छे. ते साधुनो आचार मुमुक्षु जनोए विधिवत् जाणवो अने श्राचरवो जोइए. ए विधि केवा प्रकारनो कहेलो छे ? ते कहे छे:- तेमां सूत्रग्रहणविधि अष्टम योगादि अने अर्थग्रहणविधि अनुयोग प्रस्थापनादि रूप जाणवो. ते सकळ साधु आचार - क्रिया कलाप अहोरात्र आत्मार्थी जनोए श्रचरवा योग्य छे. नव ब्रह्मचर्यात्मक तथा ॥ ३३ ॥ For Personal & Private Use Only 103+*** w.jainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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