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________________ श्री प्रशमरति प्रकरणम् ॥१४॥ भावार्थ-कर्मोदयथी भवभ्रमण अने भवभ्रमणथी शरीरनुं निर्माण, शरीरथकी इंद्रियजन्य विषयो अने विषय निमित्तथी सुख दुःख प्रवत छे. ३१ विवेचन-ते बांधेलु अशुभादिक कर्म परिपाकपणाने पाम्ये सते नरकादिक गतिमां गमन करतुं पडे छे. नरकादिक गतिमां तत् प्रायोग्य शरीरनु निर्माण थाय छे. शरीर थकी स्पर्शनादिक इंद्रियोर्नु निर्माण थाय के अने ते इंद्रियोना निर्माण थकी स्पर्शनादिक विषय ग्रहणनी शक्ति संपजे छे. पछी इष्ट विषय योगे सुखानुभव अने अनिष्ट विषय योगे दुःखानुभव थाय छे. ३६. 'आ संसारमा स्वभावेज सर्व कोइ प्राणी सुखने अभिलषे छ भने दुःखथी त्रासे छे, छतां मोहथी अंध बनेल जीव गुणदोषनो विचार कर्या वगर सुखप्राप्ति माटे यत्न करता जे जे क्रिया करे छे-आरंभे छे ते ते तेने दुःखदायी नीवडे छे. ए शास्त्रकार दर्शावे छे.' दुःखद्विद् सुखलिप्सोहान्धत्वाददृष्टगुणदोषः। यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते ॥४०॥ भावार्थ-दुःखनो द्वेषी अने सुखनो अभिलाषी, मोहान्धपणाथी गुण-दोषने नहीं देखतां जे जे चेष्टा करे के ते ते वडे ते दुःख पामे छे. ४०. विवेचन-दुःखने अणइच्छतो अने सुखने अभिलपतो जीव मिथ्यात्व कषायादिक मोहवडे अंध बनेलो होवाथी गुण-दोषने जोइ शकतो नथी अने जे जे मन, वचन अने काया संबंधी चेष्टा सुखनिमित्ते करे ले ते ते वडे दुःखकारी ॥१४॥ Jain Education Inter For Personal Private Use Only jainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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