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पांच श्राश्रवोद्वारा जेणे कर्म राशि उपचित (एकठो) करेल छे तेमज आर्तध्यान अने रौद्रध्यानवडे जेना बहुज कठोर परिणाम छे, जीवरक्षादिक कार्य अने जीवहिंसादिक कार्य तेनो निर्णय, तथा क्लिष्ट चित्तना अने निर्मळ चित्तनां जे लक्षणो तेथी मूढ ( मुग्ध) तेमज आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा अने मैथुनसंज्ञारूप क्लेशथी ग्रस्त बनी अनेक गतिमां पुनः पुनः भ्रमण थकी क्लिष्ट एवां आठ प्रकारनां कर्मबंधनथी बंधायेलो अने बद्ध निकाचितपणाथी भारे थयो सतो जन्म, जरा मरणो वडे अनेक आकारे वारंवार रखडतो, नरक, तिर्यच, मनुष्य अने देवगतिमां निरंतर सेंकडो गमे दुःखोना म्होटा भारवडे व्याप्त होवाथी दुर्बळ अने दीन बनेलो, शब्दादिक विषयसुखमां आसक्त थइ पुनः तेनीज अधिकाधिक अभिलाषा राखतो जीव कषायी क्रोधी, मानी, मायावी अने लोभी कहेवाय छे. २०-२३.
'एवो कपायी आत्मा केवी विडंबना पामे छे ते बतावे छे. '
स क्रोधमानमायालो भैरतिदुर्जयैः परामृष्टः । प्राप्नोति याननर्थान् कस्तानुदेष्टुमपि शक्तः ॥ २४ ॥ भावार्थ - श्रति दुर्जय एवा क्रोध, मान, माया श्रने लोभवडे करीने वींटायेलो प्राणी जे जे अनर्थने पामे छे; तेनुं कथन करवाने पण कोण समर्थ के ? २४.
विवेचन - दुर्जय एवा क्रोध, मान, माया श्रने लोभरूप कपायने वश पडेलो जीव वध बंधादिक जे जे अनर्थ १ अग्रशोच, इष्टवियोग, अभिष्टसंयोग अने रोगचिन्ता रुप. २ हिसानुबंधी, मृषानुबंधी, स्तेयानुबंधी अने परिग्रहरक्षणानुबंधी रुप.
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