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________________ श्री प्रशमरति प्रकरणम् ॥३॥ बहभिर्जिनवचनार्णवपारगतैः कविवृषैर्महामतिभिः। पूर्वमनेकाः प्रथिताः प्रशमजननशास्त्रपद्धतयः॥५॥ ताभ्यो विस्ताः श्रुतवाक्पुलाकिकाः प्रवचनाश्रिताः काश्चित् । पारंपर्यादुच्छेषिकाः कृपणकेन संहृत्य ॥६॥ तभक्तिबलार्पितया मयाप्यविमलाल्पया स्वमतिशक्त्या प्रशमेष्टतयानुसृता विरागमार्गकपदिकेयम् ॥७॥ शब्दार्थ-जिनवचनरूप महासागरनो पार पामेला एवा महामतिवंत अनेक कविवरोए पूर्वे वैराग्य रस उत्पादक अनेक शास्त्रोनी रचनाओ करेली छे. तेश्रोमांथी नीकळेली श्रुतग्रंथोने अनुसरनारी अने प्रवचन सिद्धांतनो आश्रय करनारी तथा परंपरागत एवी केटलीक जिनवाणीने रंकनी जेम यथामति एकठी करीने तेनी अंदर भक्तिना बळथी अर्पण करेली | अनिर्मळ अने अन्प एवी स्वमतिशक्तिवडे शांत वैराग्य रसनी इच्छाथी आ एक वैराग्यमार्गनी पगदंडीरुप ग्रंथरचना में है करी छे. ५. ६.७. विवेचन-जिनवचन समुद्र समान गंभीर-उंडा छे, तेनो मंदमति पार पामी शकता नथी. विशाळ बुद्धिबळ जेमणे | प्राप्त कर्यु छे एवा महामतिवंत पुरुषो तेनो सुखे पार पामी शके छे. एज वात शास्त्रकार बतावे छे. जिनवचनना पारने पामेला अनेक चतुर्दशपूर्वधारी, महामतिवंत, शास्त्रप्रतिबद्ध काव्यरचनामां कुशळ एटले शब्दार्थदोषरहित काव्य करनारा श्रेष्ट कविश्रोए वैराग्य रसने उत्पन्न करी शके एवी अनेक शास्त्ररचना मारा पहेलाथी ज करेली छे. ते महामतिवंत सत्कविओए जे जे वैराग्यरसपोषक शास्त्ररचनाओ करेली के तेमाथी नीकळेली श्रुतग्रंथानुसारी प्रधान अर्थप्रतिबद्ध केटलीका ॥३ ॥ Jain Education intHA For Personal Private Use Only Mw.jainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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