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श्री प्रशमरति
प्रकरणम्
॥ ९१ ॥
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वर्तता जीवने या लोक तथा परलोकमा ( नरक, तिर्यंच, मनुष्य अने देवगतिमां ) प्रायः घणां दुःख श्रावी पडे छे. एम धर्मार्थी चिन्तवे ते अपायविचय नामे धर्मध्यान समज. २४७.
वे धर्म ध्यानना श्रीजा अपने चोथा भेदनुं निरुपण करे छे:
अशुभशुभकर्मपाकानुचिन्तनार्थो विपाकविचयः स्यात् । द्रव्यक्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थानविचयस्तु ॥ २४८ ॥ अर्थ- शुभाशुभ कर्मना विपाकनुं अनुचिंतन करवारूप विपाकविचय ने द्रव्य, क्षेत्र, श्राकृतिने विचारवारूप संस्थानविचय ध्यान समजबुं. २४८
विपाक
शुभ कर्मो
विवेचन - अशुभ अने शुभ एम बे कोटीनां कर्म वर्ते छे. तेमां व्यासी प्रकारनां अशुभ कर्म अने ४२ प्रकारनां शुभ कर्म तेनो जे कटुक मधुरादि रसविपाक-अनुभव तेनुं चिन्तवन एटले के संसारी जीवोनां अशुभ कर्मोन विपाक, एवी जे अन्वेषणा - विचारणा ते विपाकविचय ध्यान जावं. अने धर्मास्तिकाय, श्रधर्मास्तिकाय, भाकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय अने काळ ए छ द्रव्यो; उर्ध्व, अधो अने तिच्छु एम त्रण प्रकारनं क्षेत्र, तेमना आकार - संस्थान संबंधी चिन्तवन करवुं ते संस्थानविचय ध्यान जाणवुं. ते एवी रीते के धर्मास्तिकाम अने अधर्मास्तिकाय बने लोकप्रमाण छे; तेमनुं संस्थान पण लोकाकाश जेवडुं अने जेवुंज छे. (ते प्रथम कहेवामां आवी गयुं छे.) पुद्गल द्रव्य अनेक प्रकारे वर्ते छे, अने अचित्त महास्कंध लोकाकारे होय छे. जीव पण
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