SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विवेचन-१ आज्ञा विचय, २ अपाय विचय, ३ विपाक विचय अने ४ संस्थान विचय ए चार प्रकारना धर्मध्यान पैकी प्रथमना चे ध्यानभेदने संप्राप्त करी, ते शील-समुद्रनो पारगामी महाशय, त्रीजा भेदने अने पछी चोथा भेदने पामे के. अत्र भेदप्राप्तिनो अनुक्रम बताव्यो छे. २४६ तेमां आज्ञाविचय भने अपायविचय ए बे भेदोर्नु स्वरूप निरूपण करवा शास्त्रकार कहे छ:आप्तवचनं प्रवचनं चाज्ञाविचयस्तदर्थनिर्णयनम् । आश्रवविकथागौरवपरीषहाद्येष्वपायस्तु ॥ २४७॥ अर्थ-सर्वथा रागद्वेषरहित एवा सर्वज्ञनां वचन ए प्रवचन तेना अर्थनो निर्णय ए भाज्ञाविचय; अने आश्रव, विकथा, गौरव अने परिसहादिकने विषे अनर्थ देखवे करीने अपायविचय जाणवू. २४७ विवेचन-जेना समस्त रागद्वेष मोहादि दोषो क्षीण-नष्ट थइ गया छे ते प्राप्त कहेवाय. तेनां वचन ते प्रवचनअसत्यादि के शंकादि दोषरहित जे द्वादशांगीरूप आगम वीतराग वचन तेना अर्थ-परमार्थनो निर्णय करवो एटले के सर्वज्ञ देवे फरमावेली आज्ञानी गवेषणा करवी-अर्थात् सर्वज्ञनां वचन सर्व थाश्रवद्वारनो निरोध करवा समर्थ होवाथी ते एकान्त हितकारी प्रने निर्दोष के एवो उंडा उतरी निर्णय करवो ते आज्ञाविचय; अने मनवचन कायाना शुभाशुभ व्यापाररूप आश्रवो; स्त्री, भक्त ( भोजन ), चौर अने देश संबंधी वगरजरुरी बातो ते विकथा; रस, ऋद्धि अने शाता * संबंधी त्रण प्रकारनां गौरव तेमज क्षुधा, तृषादिक परिसहो; आदि शब्दथी समिति अने गुप्ति रहितपणुं-ए सर्व प्रसगोमां in Education For Personal Private Use Only ww.jainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy