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आराधनास्तु तेषां तिस्रस्तु जघन्य मध्यमोत्कृष्टाः । जन्मभिरष्टत्र्येकैः सिध्यन्त्याराघकास्तासाम् ॥ २३३॥ तासामाराधनतत्परेण तेष्वेव भवति यतितव्यम् । यतिना तत्परजिन भक्त्युपग्रहसमाधिकरणेन ॥ २३४ ॥
भावार्थ - क्षमादिक दशविध धर्म अने आवश्यक योगने विषे भावितात्मा प्रमादरहित छतो सम्यक्त्व, ज्ञान अने चारित्रनो याराधक थाय छे. जघन्य, मध्यम धने उत्कृष्ट एवी त्रण प्रकारनी आराधना ते ( रत्नत्रयी ) नी थाय छे, अने तेना आराधक अनुक्रमे आठ, त्रण अने एक भवे सिद्ध थाय छे ( मोच पामे छे. ) तेनी आराधना करवामां तत्पर एवा मुनिए ते रत्नत्रयीनुं आराधन करवामां सावधान एवा साधुनी अने जिननी भक्ति, सहाय ने समाधि करवे करीने तेमां यत्न करवो युक्त छे. २३२-३३-३४
विवेचन-क्षमादिक दश प्रकारना धर्मने विषे एटले क्षमा, मृदुता, सरलता, निर्लोभता, तप, संयम, सत्य, शौच ( श्रदत्त त्याग ), अकिंचन अने ब्रह्मचर्य आ दश प्रकारना यतिधर्मने विषे अने प्रतिक्रमण, आलोचना, स्वाध्याय, प्रत्युपेक्षण, प्रमार्जन अने निर्गमप्रवेशादि अवश्य कृत्याने विषे भावितात्मा श्रने समस्त प्रकारना प्रमादना परिहारी मुनि सम्यक्त्वादि साधनोना खरेखरा आराधक थइ शके छे; बीजा थइ शकता नथी. तेना आराधक पण त्रण प्रकारना होय छे. ११ जघन्य, २ मध्यम, ने ३ उत्कृष्ट, तेमां जघन्य आराधक आठ भवे, मध्यम आराधक तण भवे अथवा त्री भवे अने उत्कृष्ट आराधक एक भवे अर्थात् तेज भवे सिद्धिने प्राप्त करे छे अर्थात् मोक्षसुख मेळवे छे. आठ भव करनार पण मनुष्य देवना भवोज करे छे घने श्रण भव करनार मध्यमां एक देवभव अने बीजा वे मनुष्यना भव करे छे. उत्कृष्ट आराधक
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