SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरणम् ३ अने २५ कषाय विगेरे ८४ पापप्रकृतिओ कहेवाय छे. ते आत्माने अशुभ फळ आपे छे. मा प्रकृतिमोनुं विशेष स्वरूप खास जाणवा योग्य छे. अहीं स्थळ संकोचना कारणथी ते बतावेल नथी. तेना अर्थीए कर्मग्रंथ, नवतत्वादिकमाथी जोइ लेबु. या श्लोकमां वे शब्द ध्यान खेंचवा लायक छे. एक तो 'जिनशासने दृष्टम्' ए शब्द कहेल छ तेथी ए समजवान के के आ पुण्य पाप अथवा शुभाशुभ प्रकृतिमोर्नु स्वरूप जिन शासनमा ज कहेलुं छे. अन्य कोइपण दर्शनमा कर्मप्रकृतिपोर्नु भावु यथार्थ अने विस्तृत स्वरूप कहेलुं नथी. बीजो शब्द 'सर्वज्ञनिर्दिष्ठम्' कहेल छे. ए शब्द उपरथी समजवान ए छे के मा स्वरूप सर्वज्ञहूँ कहेलुं छे छद्मस्थy-अल्पमतिर्नु कहेलुं नथी. वळी तेमां बीजुं ए पण रहस्य रहेलुं छे के ए आगमग्राह्य पदार्थ के मात्र बुद्धिग्राह्य नथी. सर्वज्ञकथित होवाथी तेने तथाप्रकारे सर्दहवो ए समकिती जीवोर्नु लक्षण छे. २१६ हवे ए पुण्य पापना कारणभूत भाव तत्व छे तेनुं तथा ते आश्रवने रोकनार संवर तत्त्वनुं स्वरूप शास्त्रकार कहे छ:योगः शुद्धः पुण्याश्रवस्तु पापस्य तद्विपर्यासः । वाक्कायमनोगुप्तिनिराश्रवः संवरस्तूक्तः ॥ २२० ।। भावार्थ-शुद्ध एवा मन वचन अने कायाना योग ( व्यापार ) ते पुन्याश्रव, तेथी विपरीत ते पापाश्रव अने मन वचन कायानी गुप्ति ते निराश्रय एवो संवर कह्यो छे. २२० विवेचन-मन वचन कायाना जे योग तेनो भागमपूर्वक जे व्यापार ते पुण्याश्रव छे, अने स्वेच्छापूर्वक जे व्यापार ते पापाश्रव छे. एम कहेवानुं तात्पर्य ए के के-इंद्रिय, कषाय, अव्रत अने योग ए रीते आश्रवना मुख्य ४ For Personal Private Use Only sanineterary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy