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________________ दशविधधर्मानुष्ठायिनः सदा रागद्वेषमाहानाम् । दृढरूढघनानामाप भवत्युपशमोऽल्पकालेन ॥ १७६ ॥ भावार्थ-पूर्वोक्त दशविध धर्मनुं सदा सेवन करनारने अत्यंत निविड थयेला पण राग, द्वेष अने मोहनो अल्पकाळमां क्षय थाय छे. १७९ विवेचन-क्षमादिक दश प्रकारनो धर्म उपर जणाव्या मुजब सदाय सेवनार साधुजनोने गमे तेवा द्रढ-रूढ थइने जामी गयेला एवा राग, द्वेष अने मोह नामना महा विकारोनो अल्प काळमां क्षय अथवा उपशम थाय छे. मतलब के तेमने प्रथम गमे तेटलो द्रढ थयेलो राग, रूढ थयेलो द्वेष अने जामी गयेलो मोह होय तो ते तमाम आ उत्तम क्षमादि धर्मना सतत सेवनथी-तेना प्रभावथी हताहत थइ नष्ट थइ जाय छे या उपशान्त थइ जाय छे. १७६ माया अने लोभरूप ममकार तथा क्रोध भने मानरूप अहंकार ते बनेनो त्याग करवाथी शुं हित थाय छे ते शास्त्रकार कहे छे:ममकाराहंकारत्यागादतिदुजयाद्धतप्रबलान् । हन्ति परीषहगौरवकषायदण्डेन्द्रियव्यूहान् ॥ १८०॥ भावार्थ-अहंकार अने ममकारना त्यागथी अति दुर्जय, उद्धत अने प्रबळ एवा परीषह, गौरव, कषाय तथा मन, | वचन, कायाना दंड अने इंद्रियोना ममूहने ( योगी पुरुषो ) हणे छे. १८० विवेचन:-अति दुर्जय अने उद्धत एटले प्रकृट बळवाळा एवा परीषहो जे क्षुधातृषादिक तेमने, तथा रसगारव, For Personal Private Use Only jainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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