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श्री
प्रकरणम्
ऋद्धिगारव अने शातारूप गौरवत्रयने, क्रोधादिक कषायोने, मन, वचन अने कायाना दंडोने, तेमज स्पर्शनादिक इन्द्रिप्रशमरतियोने हणी शकाय छे. मतलब के अहंता अने ममताने मारवाथी परीषह, गौरव, कषाय, योग भने इन्द्रियोनां व्यूह
समूह मात्रनो सहेजे विनाश थइ शके छे. ते बघाय सहजे ज पछी जीताइ जाय छे. १८०.
एटले के उक्त उभय महादोषने मारी, परम समतारसनिमग्न महाशय पछी कोइ परीषह प्रमुखथी गांज्यो जतो नथी. ॥६५॥
ते एकलो ज सहु कोइ प्रतिपक्षीनो पराभव करी शके छे. अने जेम वैराग्य मार्गमा स्थिरता थाय तेम ते प्रयत्न करे छे. एम शास्त्रकार दर्शावे छे. प्रवचनभक्तिः श्रुतसंपद्यमो व्यतिकरश्च संविग्नैः । वैराग्यमार्गसद्भावभावधीस्थैर्यजनकानि ॥ १८१॥
भावार्थ:-प्रवचन (जिनशासन )नी भक्ति, श्रुतज्ञाननी संपदाने माटे उद्यम, गीतार्थ साथे परिचय-ए वैराग्यमार्गना सद्भावमा साची बुद्धि अने स्थिरता पेदा करे छे. १८१.
विवेचना-प्रवचन एटले प्राप्त वचन अथवा गणधरादि तेने विषे भक्ति, श्रुत-अभ्यासनी अभिवृद्धि ( नव नव | शास्त्र अभ्यास-परिचय ) अने शास्त्रोक्त क्रियानुष्ठान सेवनार भवभीरु साधुजनोनो संसर्ग-एटलावडे वैराग्यमार्गमां स्थिरता प्रगटे छे. एटलुंज नहि पण शास्त्रोक्त जीवाजीवादिक सद्भावो विषे अने शुद्ध देव गुरु संबंधी दर्शनादिक भाव विषे बुद्धि स्थिर थाय छ; अर्थात् श्री जिनेश्वर देवोए कहेला जीवादिक तत्त्वो सघळा यथातथ्य छ भने ए महानुभाव देवो
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