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श्री प्रशमरति प्रकरणम्
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॥ भवनपति. व्यंतर, ज्योतिष्क भने विमानवासी देवीओ संबंधी दिव्य विषयभोगथी मन, वचन अने कायावडे कृत, कारित अने अनुमोदित भेदे निवर्तवाथी नव भेद थाय, तेवीज रीते मनुष्य अने तिर्यच संबंधी औदारिक विषयभोगथी त्रिविधे त्रिविधे निवर्ततां तेना पण नव भेद थाय. एम बधा मळीने अढार मेदो थाय छे. १७५ __शास्त्रकार हवे छल्ले आकिंचन्य-अकिंचनता संबंधी स्वरूप निरुपण करे छे:अध्यात्मविदो मूर्छा परिग्रहं वर्णयन्ति निश्चयतः । तस्माद्वैराग्येप्सोराकिञ्चन्यं परो धर्मः ॥ १७८ ॥
भावार्थ अध्यात्मज्ञानीयो निश्चयथी मूर्छाने ज परिग्रह कहे छे, तेथी वैराग्यना अर्थीने निष्परिग्रहता-निःस्पृ. हता ए परम धर्म छे. १७८
विवेचन-निज आत्मस्वरूप वेदी-केवी रीते आत्मा कर्मथी बंधाय के अने केवी रीते तेथी मुक्त थाय छे तेने सारी रीते समजनारा अने निज स्वरूप सामे लक्ष राखी वीतरागवचनानुसारे शुद्ध क्रियाने सेवनारा महाशयो निश्चयनयना अभिप्राये मुर्छा-ममतानेज परिग्रहरूप वर्णवे छे. तेथी वैराग्य-वितरागताने इच्छनारा साधुजनोने अकिंचनता ए परम धर्म छे. निःस्पृहताधारी एवा तेमणे कोइ पण द्रव्य, क्षेत्र, काळ के भाव संबंधी प्रतिबंध या मूर्छा-ममता रहित ज रहेQ, एमां ज सर्व हित समायेलुं छे. १७८
एवी रीते मूर्खारहितपणे धर्मानुष्ठान सेववानुं फळ शास्त्रकार हवे दर्शावे छे:
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