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________________ *********---* Jain Education International तद्रूप उत्सर्ग नामे तप. ६ वांचना, पृच्छना, परावर्त्तना, अनुप्रेचा अने धर्मकथारूप पंचविध स्वाध्याय नामे तप जाणो. श्रमां आर्त्तध्यान ते अनिष्टसंयोग, इष्टवियोग, अग्रशोच भने व्याधि-वेदना प्रत्येनी चिंतारूप. रौद्रध्यान ते हिंसानुबंधि, मृषानुबंधि, स्तेयानुबंधि भने विषयसंरक्षण संबंधी चित्त एकाग्रता धर्मध्यान ते आज्ञाविवय, अपायविचय, विपाकविचय अने संस्थानविचयरूप चार प्रकारनुं, भने शुक्लध्यान ते पृथक्त्व वितर्क सप्रविचार, एकत्व वितर्क विचार, सूक्ष्म क्रिया श्रप्रतिपाति तथा व्युपरत क्रिया अनुवृत्ति रूप, एम दरेकना चार चार भेदो समजवा. उपचार विनय ते विनय करवा योग्य पूज्य जनो आवे छते उभा थह जनुं, हाथ जोडवा, बेसवा आसन आप, आज्ञा वचन सांभळवा उत्कंठित थनुं तेमज बहारथी आव्या बाद दंडग्रहण अने चरण प्रक्षालनादिक कर. एम सकळ रीते उचितता साचवावी. १७५ - १७६ शास्त्रकार हवे ब्रह्मचर्य संबंधी प्रतिपादन करता छता कहे छे: दिव्यात्कामरति खात्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकं । औदारिकादपि तथा तद्ब्रह्माष्टादशविकल्पम् १७७ भावार्थ - दिव्य तथा औदारिक कामभोग संबंधी सुखथकी त्रिविधे त्रिविधे निवर्तकुं. एवी रीते ब्रह्मचर्य अढार प्रकारनुं छे. १७७ विवेचन - दिव्य ने औदारिक विषयभोग थकी त्रिविधे त्रिविधे निवर्ततां तेना अढार भेद थाय छे. एवी रीते के For Personal & Private Use Only **-**--*****-***3 www.jainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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