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विवेचन--इष्टजनो साथेनो संयोग अनित्य छ, प्राप्त थयेली सघळी संपदा अनित्य छ, शब्दादिक विषयजनित सुख प्रशमरति||| अनित्य छ अने आरोग्य पण अनित्य-अस्थिर छे, तेमज गमे तेटलुं पालणपोषण करेलुं शरीर, यौवन अने आयुष् ए प्रकरणम्
सघळां अनित्य-जोतजोतामां द्रष्टनष्ट थइ जाय एवां छ. ए रीते सर्व वस्तुनी अनित्यता चिंतवतां तेमां स्नेह-राग थाय
नहि अने निःसंगपणे मोक्षमार्गमा प्रवर्ताय छे. १५१. ॥५४॥
हवे शास्त्रकार बीजी अशरण भावना आश्री स्वरूप निवेदन करे छःजन्मजरामरणभयरभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके ॥ १५२ ॥
भावार्थ-जन्म जरा अने मरण ना भयथी व्याप्त अने व्याधि वेदनाथी प्रस्त एवा लोकने विषे श्रीजिनेश्वर भगबानना वचनथकी अन्यत्र क्यांय शरण नथी. १५२.
विवेचन-राग द्वेष अने मोहवशवर्तीपणावडे जन्म जरा अने मरण संबंधी भयथी भरेला तेमज ज्वर, अतिसार, क्षय प्रमुख अनेक रोग तथा शरीर संबंधी अने मन संबंधी अनेक प्रकारनी वेदनाथी व्याप्त एवा प्राणीओने श्री वीतराग सर्वज्ञ परमात्माए अर्थथी उपदिशेला अने गणधर महाराजाओ सूत्रथी गुंथेला प्रवचन (सत्शास्त्र) वगर बीजे क्याय त्राण-शरण-आधार नथी तेथी तेनुज शरण कर्तव्य छे. १५२.
हवे शास्त्रकार त्रीजी एकत्व भावना आश्री स्वरूप समजावे छे:
॥५४॥
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